30.9.08

दुखिया दास कबीर है...

देश में इस समय राजनीति का माहौल चकाचक है। 'नोट के बदले वोट कांड' एक बार फिर से गर्म है। करार के लिए बेकरार पीएम सफल होते जान पड़ रहे हैं। आतंकवादी अपने तरीके से होली-दिवाली मना रहे हैं। पक्ष और प्रतिपक्ष मुखर हैं। चुनाव सन्निकट हैं। दुन्दुभी बज चुकी है। कुल मिलाकर चुनाव लायक माहौल है।
भारतीय लोकतन्त्र में वोट-नोट, सीडी-स्टिंग, कट्टा-कारतूस की मुकम्मल जगह बन चुकी है। अब यह राष्ट्रीय स्तर पर राजनीति के औजार बन चुके हैं। वर्तमान में अमर सिंह इसके इंजीनियर जान पड़ते हैं। कोई दुविधा नहीं कि अमर सिंह जी कुशल कारीगर और कुशल अभियन्ता हैं। वोट और नोट के बीच वह सेतु का कार्य करते हैं। उनकी महिमा अपरम्पार है। वह खुद सेतु भी हैं और उसके अभियन्ता भी। समकालीन राजनेताओं ने उनका लोहा मान लिया है। उमा भारती सरीखी नेता के ‘कर कमल’ में स्टिंग की सीडी थमाकर उन्होंने वाकई कमाल कर दिया। इतने भर से ही वह चुप बैठने वाले नहीं हैं। हाल ही में उन्होने अपने कारीगरी का एक और नमूना पेश किया। कांड के मुख्य गवाह हस्मत अली को ही पुलिस के हवाले कर दिया। बहुत ही मनोरंजक ड्रामा था। मीडिया को फेवर में करने के लिए प्रणाम और स्तुति गान किया। अमर सिंह वास्तव में बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। कुशल अभियन्ता होने के साथ-साथ वह एक कुशल हास्य अभिनेता भी हैं। इस कैटेगरी में उनकी रैंकिंग नम्बर दो की है। पहले पायदान पर वरदान प्राप्त लालू है। हालांकि अमर सिंह उनको कड़ी टक्कर दे रहे हैं। इसी क्रम में उन्होंने शिवराज पाटिल की मिमिक्री कर डाली। इस मिमिक्री से पत्रकारों और आम जनता का मनोरंजन तो हुआ लेकिन खुद अमर सिंह सांसत में फंस गए। गृहमन्त्री और कांग्रेस कुपित हो गई। ड्रामे का अनापेक्षित अन्त हुआ। हस्मत को दिल्ली पुलिस ने छोड़ दिया। अब वह असलियत बयां कर रहा है। अमर सिंह पर संगीन आरोपों की बरसात कर रहा है। मीडिया अमर के चक्कर में नहीं फंसा। अमर की शिकायत का उल्टा असर हुआ। अब देखना है कि हस्मत की शिकायत को पुलिस कितनी संजीदगी से लेती है। वैसे उसके लिए कोर्ट का दरवाजा भी खुला है। ऐसी स्थिति में मेरी चिन्ता का आर-पार नहीं है। मैं ज्यादा चिन्तित मुलायम सिंह को लेकर हूं। धरतीपुत्र मुलायम सिंह को लेकर। लगता है पहलवान पर बुढ़ापा हावी हो रहा है। वह अमर सिंह की बैशाखी लेकर चलने को मजबूर हैं। मुलायम उसी पुराने तरीके से जिलाध्यक्षों और कार्यकर्ताओं की बैठक कर लाठी-डंडा, जेल-बेल की तैयारी कर रहे हैं। उधर अमर सिंह दिल्ली में माल काट रहे हैं और कैमरों के सामने चमका रहे हैं। अब तो अमर सिंह ने सार्वजनिक रूप से कहना शुरू कर दिया है कि मेरे आगमन से पहले सपा उमाकान्त यादव, रमाकान्त यादव सरीखे गुण्डों से पहचानी जाती थी। मुलायम मौन हैं। बागडोर अमर के हाथों में है। राजनीति के एक कद्दावर की टोपी उछल रही है। मुलायम के मुस्लिम तुष्टीकरण और यादववाद की आलोचना उचित ही है। लेकिन मुलायम उत्तर प्रदेश के सर्वाधिक जनाधार वाले नेता भी हैं। किसानों, छात्रों तथा गरीबों की मदद करने की उनकी अपनी विशिष्ट स्टाइल है। उनके राज की गुण्डागर्दी को याद करके रोम-रोम अवश्य सिहर उठता है लेकिन अमर सिंह जैसे योजनाकारों के रहते हुए शुभ की आशा भी नहीं की जा सकती।
जामिया का फैसला देश के शेष विश्वविद्यालयों के लिए नजीर बन सकता है। तमाम विश्वविद्यालयों के कुछ छात्र जरायम पेशा हैं। हत्या, अपहरण और लूटपाट के मामलों में छात्रों की गिरफ्तारी आम है। जामिया के फैसले से ऐसे छात्र राहत महसूस कर सकते हैं। सम्बन्धित विश्वविद्यालय या कॉलेज अब उन्हें कानूनी मदद दे सकते हैं। जामिया ने नजीर स्थापित की है। वह भी तब जब उसके दो छात्र आतंकवादी घटनाओं के सिलसिले में गिरफ्तार किये गये हैं। एक तरफ तो उसने इन दोनों छात्रों को निलम्बित भी कर दिया है, वहीं दूसरी तरफ इनकी बचाव में भी आ खड़ी हुई। जाहिर है कि निलम्बन दिखावटी है। जामिया का फैसला संकेत करता है कि उसे बटाला हाउस की मुठभेड़ पर यकीन नहीं है। अर्जुन सिंह ने भी जामिया के फैसले पर अपनी मुहर लगा दी है। स्पष्ट है कि सरकार को अपने किये पर पछतावा है। आतंकियों के खिलाफ कार्रवाई पर अब वह पश्चाताप करना चाहती है। रामविलास और फातमी भी राजनैतिक स्यापा कर रहे हैं। बकौल फातमी “कानूनी सहायता उपलब्ध कराना सरकार की जिम्मेदारी है।“ फातमी साहब ने सही फरमाया। कानूनी सहयोग सरकार का ही दायित्व है। न्यायालय के आदेश पर ऐसा करना सरकार की जिम्मेदारी है न कि जामिया की जिम्मेदारी। उसे आतंकी और तालबीन के बीच फर्क की जानकारी अवश्य होगी। कुछ चीजों को कानून के सत्यापन की आवश्यकता नहीं होती। समय आने पर चीजें खुद-बखुद स्पष्ट हो जायेंगी। लेकिन मैं ख्वामख्वाह चिन्तित हूं। कबीर भी चिन्तित थे 'सुखिया सब संसार है खाये अउ सोवे, दुखिया दास कबीर है जागे अउ रोवे। ' दरअसल मेरी चिन्ता मुलायम सिंह को लेकर है।
वेद रत्न शुक्ल
bakaulbed.blgspot.com

24.9.08

बाबू बड़ा न भैया सबसे बड़ा रुपैया

बेचारे मजदूरों के बेचारे मजदूर मन्त्री ऑस्कर फर्नान्डिस एक बयान देकर फंस गए। माफी मांगते-मांगते बुरा हाल है। मजदूरों के मन्त्री की औकात भला कितनी हो सकती है। खजाना मन्त्री होते तो और बात होती। ग्रेटर नोएडा की एक मल्टीनेशनल कंपनी में मजदूरों और प्रबन्धन के बीच झड़प हो गई। झड़प में लाठी-डंडे और पत्थर चले। प्रबन्धन के पास किराए के गार्ड थे तो मजदूरों के पास पेट की भूख। भूख की ज्वाला सही नहीं जा रही थी ऊपर से गार्डों की बदसलूकी। पानी सिर से ऊपर हो गया तो ईट-पत्थर चलाने पर उतर आए। मजदूर महीनों से आंदोलनरत थे। बावजूद इसके उनकी कोई सुनने वाला नहीं था। इस देश में मजदूरों की भला कौन सुनता है। बेचारे ऑस्कर ने कह दिया कि इस घटना से फैक्ट्रियों के प्रबन्धन को सबक मिलेगा। दरअसल उन्होंने कुछ गलत नहीं कहा। सीईओ स्व. चौधरी की मौत पर उन्होंने दुख भी जताया लेकिन साथ में मजदूरों के पक्ष में लगने वाली उपर्युक्त बात भी कह दिया। यही उनकी गलती है। ऑस्कर के कहने का आशय यही था कि इस घटना के बाद बड़ी कंपनियों का प्रबन्धन निश्चित रूप से यह सोचने पर मजबूर होगा कि मजदूरों को उनका वाजिब हक दिया जाए ताकि ग्रेटर नोएडा जैसी स्थिति न पैदा हो।
यह वही देश है जहां राजस्थान में पानी मांग रहे किसानों की हत्या कर दी जाती है। मायावती के गांव में आन्दोलनकारी किसानों की हत्या पुलिसवाले कर देते हैं। यहीं ग्रेटर नोएडा में ही पिछले साल एक निर्माणाधीन गोल्फ क्लब में गुस्साए मजदूरों पर भाड़े के गार्ड ने गोली बरसा दी और परिणाम मौत के रूप में सामने आया। गुड़गांव में मेरी आंख के सामने हरियाणा पुलिस ने हीरो होंडा कम्पनी के मजदूरों की बर्बर पिटाई की। और जगहों की पुलिस बेंत के डंडे रखती है लेकिन हरियाणा पुलिस शुद्ध बांस की लाठी। मारो तो सीधे फ्रैक्चर, अंग भंग हो जाए। मजदूरों के साथ छोटी-मोटी बदसलूकी की असंख्य घटनाएं तो रोज ही घटती हैं। ऐसी घटनाओं की सुधि लेने वाला कोई नहीं होता क्योंकि यह मजूरी-धतूरी करने वाले से संबंधित होती हैं।
खैर, ग्रेटर नोएडा में ग्रेजियानो कंपनी के सीईओ की दुखद मौत हो गई। झड़प में हुई मौत को कतई सही नहीं ठहराया जा सकता। इस घटना को टाला जा सकता था लेकिन अफसोस! कि ऐसा नहीं हो पाया। इसके पीछे के कारणों की पड़ताल होनी चाहिए। देश में कम से कम मल्टीनेशनल कंपनियों या अन्य देशी कंपनियां जिनके पास पूंजी का कोई अभाव नहीं है उनसे यह उम्मीद की जानी चाहिए कि वे श्रम नियमों का सही से पालन करेंगे। इन नियमों का पालन कराने की जिम्मेदारी सरकार की है। लेकिन सरकार ऐसा कराने में अब तक विफल रही है। यहां तो मजदूरों के लिए सप्ताह में दो दिन की छुट्टी और बीमा, पीएफ से लेकर अन्य तमाम सुविधाएं मिलनी चाहिए। सुविधाओं का पिटारा सिर्फ कम्पनियों के लिए ही क्यों? मजदूरों के लिए क्यों नहीं? कंपनी को दस एकड़ भूमि की जगह पचास एकड़ भूमि क्यों? सेज के नाम पर कहीं प्रॉपर्टी डीलिंग के लिए तो नहीं भूमि दी जा रही है। इस स्थिति में अगर किसान आन्दोलन करें, कोई उनका रहनुमा बने तो वो विकास विरोधी। पुरखों की जमीन खो देने वाले किसान के दर्द का कोई पुरसाहाल नहीं।
आइए मूल मुद्दे पर चलें। अमेरिका गए प्रधानमन्त्री ने सीईओ की मौत के मामले में वहीं से हस्तक्षेप किया है। मजदूर मरता तो कोई पीएमओ हस्तक्षेप नहीं करता। दरअसल पीएमओ चिन्तित है कि इस घटना से भारत में विदेशी निवेश पर असर पड़ेगा। जहां माल की बात हो वहां मजदूर तो गौड़ हो ही जायेगा। देशवासियों गुनगुनाइए 'बाबू बड़ा न भइया सबसे बड़ा रुपैया'
राहुल गांधी पंजाब दौरे पर हैं। गांव-गांव, शहर-शहर घूम रहे हैं। इसे हमें लोकतन्त्र की जय के रूप में देखना चाहिए। जबकि ऊपर की घटना फेल लोकतन्त्र की प्रतीक है। लोकतन्त्र की जय इसलिए की युवराज अब घर-घर घूम रहे हैं। कभी कलावती का घर तो कभी मंगरुआ का घर उनके रात का आशियाना बन रहा है। झोपड़ी को वह एक दिन के लिए ही सही अपना ठिकामना बना रहे हैं। पहले के समय में ऐसा नहीं था। तब नेता दिल्ली से हाथ जोड़कर आता था और चुनाव जीतकर टाटा-बाय-बाय करते हुए वापस दिल्ली चला जाता था। कलेक्टर साहिब सिर्फ मीटिंग करने के लिए बने होते थे लेकिन अब अपनी साख बचाने के लिए शासन उनको कभी बंधा पर तो कभी हरिजन बस्ती में दौड़ाता है। बचपन से लेकर अब तक मैंने ऐसी स्थिति में भारी बदलाव देखा है। एक उदाहरण गोरखनाथ पीठ का देना चाहूंगा। गोरखपुर सदर संसदीय सीट पर यहां की पीठ का शुरू से कब्जा रहा है। बीच-बीच में ही कुछ लोग यहां से सांसद हो पाए हैं। पहले महन्थ दिग्विजय नाथ फिर महन्थ अवैद्य नाथ पुन: तीन बार से योगी आदित्य नाथ। योगी से पहले कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था कि 'महाराज जी'(श्रद्धा से लोग यही कहते हैं) घर-घर वोट मांगने आयेंगे। पांच किलोमीटर के दायरे में किसी चौराहे पर भी इनकी सभा नहीं होती थी। एक विधानसभा क्षेत्र में केवल एक जगह पर मंच लगाकर महाराज जी लोग आशीर्वाद, साधुवाद दे दिया करते थे। लेकिन वक्त के साथ राजनीति का तकाजा भी बदला और अब घर-घर जाकर काम करना पड़ता है और वोट भी मांगना पड़ता है। जनता अब ज्यादा सजग हो गई है और उसमें जातीय या अन्य कई प्रकार की चेतना आ गई है। इसलिए अब किसी की भी सीट सुरक्षित नहीं रही। मजबूरन लोगों को गली-गली की खाक छाननी पड़ रही है। लेकिन अफसोस कि मीडिया अब भी राहुल को 'युवराज'कहता है। लोकतन्त्र में कोई राज-युवराज नहीं। वैसे भी राहुल की लोकप्रियता तो है लेकिन उनके पास वोट नहीं है।

17.9.08

कितनी सहूलियत हो अगर आतंकवादी रोज विस्फोट करें!

देश की राजमंडली लकदक रहे तो कितना ठीक है। राजा साहिब बनाव-श्रृंगार नहीं करेंगे तो भला कौन करेगा, मेरा 'मंगरुआ'। गृह मन्त्री शिवराज पाटिल छैला बनकर नहीं घूमेंगे तो कौन घूमेगा। वैसे भी मुझको उनमें फिल्मी खलनायक अजीत या प्राण का अक्स नजर आता है। आप को अगर ठीक से याद आता हो तो बताइयेगा कि शिवराज बाबू किस फिल्मी पर्सनैलिटी की तरह लगते हैं। बहरहाल, शिवराज बाबू ने लोगों के सुविधानुसार ही वस्त्र धारण किया। विस्फोट से पहले पार्टी मीटिंग में गए तो बिल्कुल सौम्य ग्रे कलर का सूट पहनकर। वहां सोनिया-वोनिया जी कितने सारे लोग रहते हैं। मीडिया के सामने आए तो थोड़ा गहरे कलर का सूट पहन लिया। मीडियावाले ही बताएं कि आखिर कैमरे के सामने कपड़ों के रंग का महत्व होता है कि नहीं? बेचारे सुविधा भी प्रदान करते रहें और खिंचाई भी होती रहे, कैसा जमाना आ गया है। उसके बाद अस्पताल गये, मर-मरा गये और घायल लोगों का हालचाल लेने तो सफेद रंग का सूट पहन लिया। मीडिया के लोग जैसे सिनेमा देखते ही नहीं हैं। देखते नहीं वहां दरवाजे पर लाश पड़ी रहती है और परिजन एकदम झक सफेद कपड़े पहनकर विलाप करते हैं। कितने धैर्यशाली लोग होते हैं। घर में मौत पक्की हुई तो तुरन्त दहाड़ें मारना नहीं शुरू करते गंवारों की तरह। पहले जाते हैं वार्डरोब में से फ्यूनरल ड्रेस निकालते हैं तब रोना-धोना शुरू करते हैं। चाहे स्त्री हो या पुरुष सभी इस तरह का संयत व्यवहार करते हैं। इन फिल्मों को देखकर मुझे लगता है कि जरूर धनवान लोग दो-तीन जोड़ी फ्यूनरल ड्रेस बनवाकर रखते होंगे। तो अपने शिवराज जी भी सफेद सूट-बूट पहनकर गए शोक-संवेदना जताने।
आतंकवादियों ने अपने तयशुदा कार्यक्रम के तहत दिल्ली में बम विस्फोट कर दिया। उन्हें तो ऐसा करना ही था। अल्लाह के बन्दे हैं जो चाहें सो करें। कौन है उनको रोकने वाला। हमारी सरकार भी कम होशियार थोड़े है। उनकी इस घिनौनी हरकत से भी वह कुछ नया सीख लेती है। बकौल गृह सचिव 'हर बार के विस्फोट से अपना गृह मन्त्रालय कुछ नया सीखता है।' कितनी सहूलियत हो अगर आतंकवादी रोज विस्फोट करें, अपना गृह मन्त्रालय रोज कुछ न कुछ नया सीखेगा। मुफ्त की क्लास, मुफ्त का ज्ञान। कुल मिलाकर मुफ्त की पाठशाला। दरअसल इस्लामिक आतंकवाद के कीड़े पैर पसार चुके हैं और हमारी व्यवस्था से तो अब पायरिया की सी बदबू आने लगी है।
मैंने शुरू में ही देश के राजमंडली की जय कर दी है। झूठे थोड़े ही की है। वहां लालूजी हैं, रामविलास भाई हैं। दोनों सिमी समर्थक हैं। रामविलास भाई लादेन के भी जबर्दस्त फैन हैं। याद कीजिए २००४ बिहार विधानसभा का चुनाव। उस समय रामविलास भाई लादेन के एक हमशक्ल को लेकर चुनाव प्रचार कर रहे थे, तब भी मैंने लिखा था कि ऐसा करके वह एक समुदाय विशेष को कटघरे में खड़े कर रहे हैं। सौभाग्य से लादेन या रामविलास को मुसलमानों का समर्थन नहीं प्राप्त हुआ। लेकिन ऐसे धुरंधरों के रहते हुए आतंकवादियों को निश्चित राहत महसूस होती होगी। सोचते होंगे कि हमारा भी कोई तगड़ा आदमी वहां है। वैसे भी इस मुल्क में उनके तमाम हित-बन्धु पैदा हो गए हैं। कोई डॉक्टर है तो कोई इन्जीनियर, कोई मुल्ला तो कोई मौलवी, कोई कुछ तो कोई कुछ। उनको पूरी तरह मुतमईन रहना चाहिए। दिग्गज धर्मनिर्पेक्षों के रहते उनका कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता। आतंकवादी अबुल बशर की गिरफ्तारी होगी तो एक से एक आला नेता पहुंचेंगे। जरूरी राहत और इमदाद देंगे। ऐसे में हे प्यारे आतंकवादियों! एकदम निश्चिन्त रहो, मन लगाकर अपना काम करो। लेकिन शिवराज भाई ''जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी, सो नृप अवसि नरक अधिकारी।''