25.12.08

भयंकर टारगेट के बाद हत्या और हल्ला


ध्यान योग्य तथ्य--- यह सब बातें बिल्कुल नयी नहीं हैं। सब लोग इन्हें जानते हैं।


टारगेट भयंकर होने पर कारिन्दा या तो हत्या कर देगा या आत्महत्या कर लेगा। मायावती की दुकान के कारिन्दे ने कुछ ऐसा ही किया। चूंकि कारिन्दा बाहुबली था इसलिए आत्महत्या की बजाय हत्या कर दिया। दूसरी बात एक गम्भीर सवाल बन जाती है। क्या यूपी में अधिकारी इतनी रिश्वत लेते हैं कि उनसे 50 लाख रुपये चन्दा मांगा जा सके? इसका उत्तर है... हाँ...। बड़े अधिकारी के लिए यह रकम कोई बहुत नहीं। जनता के धन में से वह 10-20 करोड़ इधर-उधर तो कर ही देता है। एक और बात यूपी में टिकट की दुकान सजती है जहां से लुटेरे इसकी खरीद-फरोख्त कर लेते हैं। जिसके बाद वह माननीय बन जाते हैं। एक प्रश्नोत्तर पर और नजर डाल लीजिए- क्या यूपी में गुण्डे लोगों को मारते-पीटते और सड़क पर घसीटते हैं। जी हां! मैंने ऐसा अपनी आँखों से देखा है। यह भी देखा है कि उसे मारने के बाद थाने ले जाया जाता है जहां जिन्दा बच जाने पर उसे जख्मी हालत में जेल भेज दिया गया। यहां तो इन्जीनियर साहब मरकर मुक्ति पा गए नहीं तो उन्हें भी जेल जाना पड़ता। ऐसी घटनाओं के बाद यूपी में आमतौर पर वही लोग हल्ला मचाते हैं जो ऐसे खेल में आकण्ठ डूबे हुए हैं। लेकिन वे करें भी तो क्या गर हल्ला न मचाएं। वे हल्ला शायद इसलिए मचाते हैं कि आगे उन्हें यह सब करने का अधिकार हासिल हो सके। दुख यह कि जनता कभी हल्ला नहीं मचाती है वह आमतौर पर चुप रहती है। उसे हल्ला देखने में मजा आता है मचाने में नहीं।

अबकी बार बहनजी के शासन की शुरुआत में आस तो बंधी थी लेकिन अब ऐसा नहीं है। अब उनके गुण्डे मुलायम के गुण्डों की तरह बेलगाम हो गए हैं। ऐसे ही दो प्रकरणों पर मैंने एक अप्रकाशित (किसी कारण से) खबर लिखी थी। कृपया इस पर भी गौर फरमाएं---
पने यहां रसूख वाले लोग अपराध करने के बाद जेल की जगह अस्पताल जाया करते हैं। अपराध की तैयारी या उसे कारित करने के वक्त ये असाधारण और अदम्य साहस का परिचय देते हैं। लेकिन अपराध हो जाने के बाद न जाने कैसे वह डिप्रेशन का शिकार हो जाते हैं। अक्सर इनको सीने में ही तकलीफ हो जाती है और रक्तचाप हिमालय यात्रा पर निकल पकड़ता है। इस स्थिति में मानवाधिकार और कानून का तकाजा इन्हें जेल के बजाय अस्पताल पहुंचा देता है। माननीय लोग आमतौर पर सुविधा में खलल बर्दाश्त नहीं करते।
आज और कल, कल और आज अपने गोरखपुर की भी तस्वीर ऐसी ही है। अपने और सूबे के पूर्व मंत्री जमुना निषाद महाराजगंज कोतवाली गोलीकांड याकि हत्याकांड में अभियुक्त बन गए तो हंगामा बरपा। बहन जी की दृष्टि थोड़ी तिरछी हुई तो बेचारे जेल चले गए और मंत्री पद भी गंवा बैठे। खैर माननीय थे इसलिए जेल में तो रह नहीं सकते थे। तब से अब तक लगातार अस्पताल में आराम या कहें कि स्वास्थ्यलाभ ले रहे हैं। मेरे विचार से स्वास्थ्यलाभ लेने के लिए न्यायिक अभिरक्षा से अच्छा और कोई समय नहीं सकता। मुफ्त का इलाज और भोजन तथा खाली समय और खैरख्वाहों की भीड़, आदि...आदि। बात जमुनाजी की हो रही है तो थोड़ा तफ्सील से बता दें कि इनको हुआ क्या है। पहले तो इनको दिल की बीमारी ने आ घेरा और उसका इलाज-पानी हुआ। डॉक्टर कहते रहे कि सब ठीक है, दवा जेल में भी चलती रहेगी। लेकिन जमुनाजी संघर्षशील व्यक्तित्व के धनी हैं इसलिए संघर्ष कर-करके- कर-करके बता डाले कि नहीं मेरा इलाज मेडिकल कॉलेज जैसी ही किसी जगह पर हो सकता है। वह भी किसी अच्छे-भले झकास टाइप के रूम में। संघर्ष की जीत हुई और जमुना जी गोरखपुर-टू-गोरखपुर वाया देवरिया जेल की यात्रा बजरिए अस्पताल पूरी कर रहे हैं। पहले दिल ने दग-दग किया अब पेट से नीचे हलचल होने लगी। आमतौर पर यह हलचल पानी भरने से उत्तपन्न होती है। और इस हलचल का एक ही शर्तिया इलाज है ऑपरेशन। तो जमुनाजी के भी इस अंग विशेष की चीरफाड़ हो गई। वैसे यह अंग नितांत निजी होता है लेकिन चूंकि यहां मामला जनप्रतिनिधि का है इसलिए इसकी भी चर्चा करनी पड़ रही है। अंदर तक पैठ रखने वाले सूत्र बता रहे हैं कि पानी भरा ही नहीं था। पत्रकार हैरान और परेशान है कि इतने अहम अंग की अनायास चीड़फाड़ क्यों कराई गई। जवाब सीधा है कि माननीय लोग जेल में तो रह नहीं सकते और अस्पताल में रहने के लिए कोई तो बहाना चाहिए।
अब आइए ताजातरीन मामले पर नजर डालते हैं। विगत दिनों शहर में गैंगवार हुआ, जमकर गोलियां चलीं। महानगर थर्रा गया। यहां कि फिजा में अब जब-जब थरथराहट होती है तो विनोद उपाध्याय नाम के बसपा नेता का नाम सुर्खियों में होता है। गुजिश्ता कुछ सालों से तो बहरहाल यही हाल है। गोया कि अबकी भी विनोद उपाध्याय का नाम प्रकाश में आया और बसपा की पुलिस को उन्हें गिरफ्तार करना पड़ा। कहानी का विस्तार आगे कुछ इस तरह से होता है। वारदात के बाद सारे शहर का रक्तचाप उच्च हुआ तो स्वाभाविक रूप से इन नेता जी का भी हुआ। होता भी क्यों नहीं। इसी शहर की हिफाजत, विकास व अन्य तमाम मुद्दों को लेकर ये नेता बने हैं तो चिन्तित होना लाजिमी है। बहरहाल श्री उपाध्याय का भी रक्तचाप-वक्तचाप असामान्य हो गया और सीने में तकलीफ-वकलीफ पैदा हो गई। इस तरह श्री उपाध्याय अस्पताल में विश्राम करने लगे। इस हालत में बिगड़ी तबियत को कायदन ठीक नहीं होना चाहिए था लेकिन कमबख्त ठीक होने लगी। अब बसपा के प्रशासन को चिन्ता सताने लगी कि नेता जी को कहीं जेल न भेजना पड़े। इसलिए न्यायालय को बताया गया कि इस शेर दिल नेता को हरी-पीली टट्टियां-वट्टियां होने लगीं हैं और इसके लिए जेल से बाहर अस्पताल में रहना बहुत जरूरी है। न्यायालय माननीय होता है इसलिए बता दिए नहीं तो बताते भी नहीं। यू हीं अस्पताल में रखते, सेवा-सुश्रुषा करते। लेकिन माननीय न्यायालय ने फटकार लगाई है और पूछा है कि ऐसा कैसे?

24.12.08

गांव-शहर पर लम््बी टिप््पणी

मैंने यह टिप््पणी 'मोहल््ला' में लिखी। 'गांव रहने लायक हैं मगर किसके लिए...' पर अपनी राय दी। अब आप बताएं कि मुफ््त में इतनी लम््बी राय देना क््या जायज है।
शहर में हर गली में ठगी और लूट है। दूकानदार और लोग बेतरह लूटते हैं, जानते हैं कि फिर भेंट नहीं होनी है। आदमी सम्बन्ध पैसे के आधार पर तय करते हैं, आदमियत की तो कोई जगह ही नहीं। अगर किसी के मकान में एक दिन ज्यादा रुक जाएं तो वह आपसे 15 दिन का किराया वसूलना चाहता है। अगर कोई चूड़ा-दही खाना चाहता है तो इसमें आपको क्यों आपत्ति है? आपके पास उपलब्ध है तो खिलाइए अन्यथा न खिलाइए। अगर आपको दिक्कत ही है तो चूड़ा-दही और कपड़ा निकालकर खाने वाले लोग अब सिर्फ गिनती के बचे हैं और कई गांवों में तो हैं ही नहीं। इनसे चिन्तित होने की जरूरत नहीं है। दूसरी ओर यह भी सही है कि गंवईं राजनीति खतरनाक स्तर तक पहुंच गई है। इसके लिए जातिवाद ज्यादा और पंचायतों को मिले अधिकार थोड़े कम जिम्मेदार हैं। मण्डल कमीशन लागू होने के बाद इसमें भयानक वृद्धि हुई। गांव कत्लगाह बनते जा रहे हैं। हालांकि कई लोग इस परिवर्तन को पिछड़ा वर्ग उभार के रूप में भी देखते हैं। सरकार और प्रभुओं ने यदि गांव के बारे में ठीक से सोचा होता तो तस्वीर कुछ दूसरी होती। दरअसल गांव को कभी हमने अपना माना ही नहीं। हम हमेशा शहर भागने की फिराक में रहे। आज भी गांव में सिर्फ वही रहता है जो मजबूर है। स्वेच्छा से गांव में रहने वाले बहुत कम हैं। इसके लिए एक हद तक प्रवृत्ति तो दूसरी ओर सुविधाओं का अभाव जिम्मेदार है। इन्हीं कारणों से गांव नरक का भोजपुरी अनुवाद बन गया।
शिक्षा और उससे जुड़ी चीजें (किताब आदि) तो एकदम नदारद हैं। रोजगार का अभाव भी अहम है। उन गांवों में तस्वीर निश्चित रूप से जुदा है जहां लोग ज्यादे शिक्षित हैं। मेरे गांव में शिक्षा का स्तर पुराने समय से ही ठीक है इसलिए गांव तमाम बुराइयों से दूर है। हां यह जरूर है कि यहां एक ही आदमी पूरे गांव का उत्पीड़न करता है तो इसके लिए व्यवस्था जिम्मेदार है जो न्याय नहीं देती। छुआछूत आदि तो अब समाप्त प्राय हैं। नशे की गिरफ्त, निठल्लापन तो आयातित शहरी विकार हैं। गांजा-भांग तो पहले से थे लेकिन बहुत कम लोग इसका नियमित सेवन करते थे। ऐसा करने वालों का तिरस्कार होता था, सामाजिक अंकुश होता था तो स्थिति नियन्त्रित और उत्तम थी। लोग रोजगार के लिए शहरों में गए तो मतवाला हाथी बनकर लौटे जो अंकुश स्वीकार नहीं करता। इस तरह नशे में वृद्धि हुई। शराब का चलन तो विशुद्ध शहरी है। सहज उपलब्धता ने स्थिति को डांवाडोल कर दिया। एक स्कूल खोलने में सरकार को नानी याद आ जाती है लेकिन हर चौराहे पर शराब की दुकान खोलकर राजस्व का दोहन करना उसे खूब सुहाता है। अब गांवों में भी कोई शादी बिना शराबखोरी के सम्पन्न नहीं होती। शराब नहीं पीयेंगे तो नाचेंगे कैसे। दरअसल हम स्वभाव से नकलची हैं। बाहर की चीजों को पट से लपक लेते हैं। शहर के लोग पश्चिम की चीजों को और गांव के लोग शहर की चीजों को। लेकिन कुल मिलाकर 'स्थिति तनावपूर्ण किन्तु नियन्त्रण में है।'
दूसरी ओर सघनता में कमी और समय की उपलब्धता गांव में है। जिसका एक फायदा जरूर है कि अब भी लोग एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। इसके अलावा यह भावना भी कहीं न कहीं रहती है कि अमुक मेरे भाई-पट्टीदार हैं इसलिए स्वाभाविक तौर पर अपनापन होता है। दूसरे जाति के लोग भी काका-काकी होते हैं। शहर में कोई किसी का नहीं होता। आरडब्ल्यूए और गांव के ताने-बाने में बहुत अन्तर है। मैंने आज तक बहुत विचार किया तो पाया कि शिक्षा और रोजगार का उत्तम प्रबन्ध हो जाए तो गांव शहर की अपेक्षा अत्यन्त बेहतर है।

21.12.08

व्हेन आई टाक त आईअ टाक

आज आपको एक सच्ची लेकिन सुनी हुई मनोरंजक घटना सुना रहा हूँ।
काशी हिन्दु विश्वविद्यालय के एक पूर्व छात्र नेता अंग्रेजी के प्रति बहुत प्रतिबद्ध हैं। मान लीजिए कि उनका नाम बिन्दु राय है। एक बार एक वरिष्ठ दलीय नेता ने उनसे परिचय पूछा तो उन्होंने अपना परिचय इस प्रकार दिया... आई इज बिन्दु राय...। सहसा उन्हें अपनी गलती का एहसास हुआ तो सुधार करते हुए उन्होंने पुन: दे मारा... आई आर बिन्दु राय। माहौल कितना खुशगवार हो गया होगा आप अन्दाजा लगा सकते हैं।
इसी प्रकार एक बार वह मंच पर बोलने खड़े हुए तो किसी ने बीच में टुपक दिया। राय साहब नाराज हो गए और अंग्रेजी में खूब डांटा... व्हेन आई टाक त आईअ टाक अ... व्हेन यू टाक त यूअ टाक, डोंट टाक बिट्विन-बिट्विन।
कहते हैं कि राय साहब ने अंग्रेजी सीखने में राजनीति से ज्यादा मेहनत की। कई प्रकार की अंग्रेजी पत्र-पत्रिकायें मंगाकर वह अध्ययन करते रहे। फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने के लिए उन्होंने रैपिडेक्स स्पीकिंग कोर्स का भी सहारा लिया। कुछ दिन तक स्पीकिंग कोर्स की क्लास भी ज्वाइन किए। लेकिन हाय री अंग्रेजी! लाख कोशिशों के बाद भी तुम राय साहब के लिए पराई ही रही, विदेशी ही रही। इसी प्रकार एक अन्य नेता जी ने ट्रेन में एक आदमी से ‘सुर्ती ऐण्ड इज…’ कहकर खैनी मांगा।

19.12.08

२००६ की सर्वश्रेष्ठ कविता

मित्रों! एक अफ्रीकन बच्चे द्वारा लिखित कविता को यूएन ने वर्ष 2006 की सबसे अच्छी कविता घोषित किया। मुझे यह कविता एक वरिष्ठ पत्रकार ने मेल किया है। मैं चाहता हूं कि आप लोग भी इसका रसास्वादन करें---
The best poem of 2006

This poem was nominated by UN as the best poem of 2006, Written by an
African Kid


When I born, I black
When I grow up, I black
When I go in Sun, I black
When I scared, I black
When I sick, I black
And when I die, I still black

And you white fellow
When you born, you pink
When you grow up, you white
When you go in sun, you red
When you cold, you blue
When you scared, you yellow
When you sick, you green
And when you die, you gray

And you calling me colored?

29.11.08

देश को शिवराज से और शिवराज को देश से...

गृह मंत्री को इस्तीफे के बाद त्वरित टिप्पणी

शिवराज पाटिल को देश से और देश को शिवराज से फुर्सत मिल गई। परिणामस्वरूप दोनों तरफ खुशी का माहौल है। एक बड़े दु:ख के बाद देशवासियों को थोड़ी राहत मिली। सूखे कण्ठ को जल की दो बूंदें मिल गईं। सूत्रों ने सूचना दी है कि शिवराज बाबू की भी खुशी का ठिकाना नहीं है। बनाव-श्रृंगार उनके जीवन में बहुत अहमियत रखते हैं। इनसे उनको दिली लगाव है। इसके लिए उनके पास अब पर्याप्त समय रहेगा। वह कुछ भी छोड़ सकते हैं लेकिन साज-श्रृंगार नहीं। अब न उन्हें समय की कमी रहेगी और न उनपर मीडिया की नजर रहेगी। अब जहां चाहें ‘छैला’ बनकर घूमें। दिनभर में आठ सूट बदलें चाहे अट्ठारह, चाहे दो कंघी रखें चाहे दो सौ। अब कोई उन्हें परेशान नहीं करेगा। चलिए बड़ा अच्छा हुआ उनके लिए भी और देश के लिए भी। कांग्रेस की डैमेज कंट्रोल की इस कार्रवाई से उसे कितना लाभ होगा कृपया अपनी राय दें।

26.11.08

आतंकवादी हमला और मेरा रात्रि जागरण

भोर में 4 बजे त्वरित टिप्पणी
देश दहल गया। हिल गयी मुम्बई। हिल गया भारतीय जनमानस। शहीद हो गए हेमन्त करकरे। कई अन्य पुलिस अधिकारी और सिपाही भी युद्धक्षेत्र में शहीद हो गये। यह पूरी तरह से युद्ध है। सरकार और तमाम नेताओं को अब यह मान लेना चाहिए। रात दो बजे तक की सूचना के अनुसार दो आतंकी भी मारे गये हैं। मेरा मन डर रहा है। मुझे शंका है कि कहीं करकरे की शहादत को भी अमर सिंह झूठा न बता दें।
आतंक की जड़ें देश में गहरे पैठ चुकी हैं। दिल्ली विस्फोटों के बाद बाटला हाउस एनकाउंटर व अन्य गिरफ्तारियों से मुझे लगने लगा था कि सिमी टूट गया, बिखर गया। अब आतंक को खड़े होने में समय लगेगा। क्योंकि बताया जा रहा था कि अब देश के लोग ही आतंकी बनने लगे हैं और इनकी तादाद बहुत कम है। बाहर से सिर्फ इनको खाद-पानी मिलता है। सांस ये यहीं की हवा में लेते हैं। दिमागी और माली इमदाद ही इन्हें बाहर से मिलती है। बाहर के आतंकी अब सेंध लगाने में सक्षम नहीं रहे। लेकिन मेरी सोच भ्रम थी जो टूट गई। आतंकवादी बाजे पर नेता तराना तो गुनगुनाते ही हैं। लेकिन इस बीच नेता और बुद्धिजीवियों ने तराना गाना छोड़ दिया और बहुत गम्भीरता से आतंकवाद के बीच एक नये आतंकवाद ‘हिन्दू आतंकवाद’ की थियरी इस्टैब्लिश करने में जुट गये थे। इसे हम थियरी कहें या हाइपोथिसिस समझ में नहीं आता। बहरहाल, लोगों का ध्यान आतंकवाद, सरकार की असफलता आदि से हटने लगा। इस नयी थियरी को लेकर देश में बहस-मुबाहिसों का दौर चालू हो गया। बैठकें गर्माने लगीं। बुद्धिजीवियों और मीडिया के हाथ पर्याप्त मसाला लग गया। कुल मिलाकर असल मुद्दे से ध्यान हट गया। साध्वी प्रज्ञा इस नये आतंकवाद की प्रणेता बतायी गयीं।
फिलहाल विदेशी मीडिया पर भी रात के तीन बजे मेरा ध्यान है। उनका जोर इस बात पर है कि आतंकी ब्रिटिश और अमेरिकन की तलाश में थे। एक प्रत्यक्षदर्शी के हवाले से बीबीसी यह बात बार-बार गोहरा रहा है। उसका कहना है कि आतंकियों ने पूछा कि किसी के पास ब्रिटिश या अमेरिकन पासपोर्ट है? खैर उनकी चिन्ता जायज है। अपने देश के नागरिकों की वे चिन्ता करें तो यह उचित ही है। उन्हें ऐसा करना ही चाहिए। भारत के नक्शे-कदम से वे दूर हैं, यह राहत की बात है। देर-सबेर यहां के नेता भी इससे सबक ले सकते हैं। हो सकता है कि वे समझ जाएं कि पहले देश है, देश के नागरिक हैं तब और कुछ है। उनकी बेहद निजी राजनीति भी और कुर्सी भी। लेकिन बुद्धिजीवियों को क्या कहा जाए वे किस लालच में अंट-शंट क्रियाकलाप करते रहते हैं। समझ से परे है। झटके में बुद्धिजीवी बनने के फेर में, उदारवादी दिखने के फेर में, अहिंसावादी बनने के नाटक के तहत ऐसा स्वांग रचाया जाता है। निर्मल वर्मा ने एक बार कुछ इसी तरह का आशय जाहिर किया था।
अब रात के 3 बजकर 25 मिनट हो रहे हैं। ओल्ड ताज होटल की ऊपरी मंजिल में आतंकियों ने आग लगा दी है। यह होटल विश्व धरोहर में शामिल है। 105 साल पुराना है। आधुनिक हिन्दुस्तान के निर्माताओं में से एक जमशेद जी टाटा का मूर्त सपना। मैं टीवी पर इसे धू-धू कर जलते हुए देख रहा हूं। संवाददाता फायरिंग के राउंड गिनने में व्यस्त हैं। दोनों की अपनी मजबूरी है। मुझे पाकिस्तान के प्रसिद्ध होटल में हुए धमाके की याद आ रही है। यकीन मानिए उस समय मैंने सोचा था कि भारत में ऐसा नहीं हो सकता। उस हमले के बाद सुबह-सुबह अपने सहकर्मियों से बातचीत में मैंने कहा कि “हालांकि यहां भी आतंकवाद है, खूब है लेकिन उसकी तीव्रता उतनी नहीं। यहां एक ट्रक विस्फोटक कोई इकट्ठा नहीं कर सकता और इकट्ठा कर भी ले तो ऐसे ले के घुस नहीं सकता। पहली बात तो यह कि इतना साज-ओ-सामान कोई जुटा ही नहीं सकता…” ऐसा मैंने दृढ़ मत व्यक्त किया था। सुनते हैं कि पाकिस्तान में सरकार और कानून नाम की कोई चीज नहीं है। वहां कठमुल्लों का शासन है। लेकिन मेरा भ्रम फिर टूट गया। पाकिस्तान की तरह हिन्दुस्तान में भी वैसा ही हो गया। बल्कि उससे भी ज्यादा भीषण हमला हुआ। वहां ट्रक पर लदा विस्फोटक गेट तोड़ते हुए घुसा और दग गया। लेकिन यहां तो बाकायदे मोर्चेबन्दी हुई और खौफनाक मंजर सामने है। लगभग छ: घण्टे हो गये लेकिन आतंकियों का तांडव थमने का नाम नहीं ले रहा है। देश ने यह समय भी देख लिया। मेरे विचार से मध्ययुग में, 1857 की क्रांति के समय तथा विभाजन के वक्त जो घाव लगे, जो प्रहार हुए मुम्बई पर हुआ हमला उन्हीं के टक्कर का है। पता नहीं लोग अब साध्वी प्रज्ञा की चर्चा करेंगे या नहीं। एटीएस ने तो अपना प्रमुख ही खो दिया। जो फिलवक्त साध्वी प्रज्ञा प्रकरण के चलते इस समय काफी चर्चा में थे। हालांकि मुझे आशा ही नहीं अपितु पूर्ण विश्वास है कि धर्मनिर्पेक्ष जन साध्वी की ही चर्चा करेंगे। मूल तत्व पर न वह प्रहार करेंगे न सरकार। काश! वह ऐसा करते। तब शायद उन्हें यह नया काम 'हाइपोथिसिस ऑफ हिन्दू टेररिज्म' नहीं करना पड़ता।
और अब अंत में दो बातें और। आतंकियों ने अबकी बहुत देर तक तांडव मचाया। तांडव के लम्बा खिंचने से देश-विदेश का मीडिया तमाम मौकों पर पहुंच गया और सारा कुछ लाइव हो गया। वैसे, अमर, लालू, पासवान यह प्रश्न अवश्य पूछ सकते हैं कि करकरे ने बुलेटप्रूफ जैकेट पहनी थी या नहीं? ऐसे मौके पर घटिया राजनीति की बात करते समय मेरा मन खट्टा हो रहा है। लेकिन देश की कमान जब घटिया हाथों में हो तो अच्छे की उम्मीद कैसे की जा सकती है?

22.11.08

आँख मारने का चलन अब नहीं रहा

आँख मारने का चलन अब नहीं रहा। यह एक किस्म की छेड़खानी थी। इसे आप प्रणय निवेदन भी कह सकते हैं। प्रेमिका के प्रति प्रेम के इजहार के लिए प्रेमी द्वारा सामान्यत: यह घटना की जाती थी। साधारणतया इसे प्रेमीजन ही आजमाते थे और प्रेमिका के इशारे का इन्तजार करते थे। कहें कि इस कर्म पर पुरुष वर्ग का ही अधिकार था। तब प्रेम निवेदन की पहल पुरुष ही करते थे। शुरुआत करने का जिम्मा उन्हीं के कन्धों पर था। लड़कियों में नारी सुलभ लज्जा होती थी। आज भी होती है (मैं जूतम-पैजार नहीं चाहता)। गोया कि लड़के जब किसी पर फिदा होते तो उसे आँख मारते थे। मैं अब आँख मारने की विधि भी बताऊंगा हालांकि मैं खुद कभी इस योग्य नहीं हुआ। लोग पूछ सकते हैं कि ‘आँख मरौअल’ के पीछे इतना क्यों पड़े हैं? कोई अच्छी सी समाज सुधारू टाइप पोस्ट लिखते। लेकिन मैंने ठान लिया है कि आँख मारने के इस नष्ट हो रहे चलन पर ही अंगुलियां फिराऊंगा। जाने क्यों बहुत दिनों से कुछ लिख नहीं पा रहा हूं। अटल जी ने कहा था कि लेखन बहुत अवकाश मांगता है। लेकिन तमाम ऐसे लोग हैं जो अतिव्यस्त और परेशान होते हुए भी लिखते हैं। खैर, विषय पर आते हैं। जमाना बदल गया है। अब प्रेमपाठी लोग आँख मारने के बजाय मिस काल करते हैं। वैसे, मिस काल करने में रिस्क ज्यादा है। इसमें अगले के मोबाइल पर आपका नम्बर आ जाता है। वहीं आँख मारने में यह खतरा प्राय: नहीं रहता था। अगर लड़की ने शिकायत भी कर दिया तो साफ मुकर सकते थे। मैंने तो ऐसा नहीं किया। कह सकते थे कि उसको गलतफहमी हुई होगी। वैसे कई लड़के कहते थे कि आँख में ऐसे ही दर्द हुआ तो जरा सा मुलका दिया। हालांकि यह बहाना पकड़ा जाता था। वैसे ही जैसे ‘ग्वाल बाल सब बैर पड़े हैं, बरबस मुख लपटायो’।कई शातिर किस्म के लोग कह देते थे कि ‘’जाने दीजिए! बदमाश है, ऐसे ही नौटंकी करती रहती है।’’
तो जमाना बदलने के साथ-साथ लोगों की स्मार्टनेस में भी भारी इजाफा हुआ है। अब लोग ज्यादे बोल्ड हो गए हैं। याद करिए जब बदलाव की बयार बह रही थी तो एक सिनेमा आया जिसमें इलू-इलू गाना चला... दिल करता है इलू-इलू...। तो लोगों ने पकड़ लिया इलू-इलू। इसे ही इशारा बना लिया। लेकिन गाना इतना चल गया था कि इलू का फुल फार्म बच्चा-बच्चा समझने लगा। जैसा कि मैंने कहा कि अभी बयार बहनी शुरू हुई थी तो थोड़ा बहुत शील-संकोच बचा था। समय ने और करवट बदली तो मामला ओपन हो गया। भाई लोगों ने सीख लिया कि ‘आजू-बाजू मत देख आई लव यू बोल डाल।’ वैसे अब और एडवान्स समय आ गया है। जरा सा साथ हुआ तो तुरन्त बोल दिया कि सिनेमा देखने चलें। बाद में डेटिंग-सेटिंग तक चले जाते हैं। यह पहल अब सिर्फ लड़कों के जिम्मे नहीं रही, लड़कियां भी बराबर की भागीदारी निभा रही हैं। कन्धे से कन्धा मिलाकर चल रही हैं।

26.10.08

खली की याद सताती है... (पुन: प्रकाशित)

मित्रों बैठे-बैठे बकवास हो गई तो उसे छाप दिया। कृपया पढ़कर अपनी राय से अवगत कराएं।
बहुत दिन हुआ खली को देखे। मुझे उनकी याद सता रही है। भूत-प्रेत देखे भी बहुत दिन हुआ। राखी का दीदार हुए भी एक अरसा बीत गया। आकाश गंगा में हर क्षण होने वाले विस्फोट भी अब नहीं सुनाई देते। ‘सावधान! वो आ रहे हैं’ का भी कोई पता नहीं। साईं बाबा के चमत्कार भी अचानक कम हो गए हैं। महामशीन भी बिगड़ गई है। इसके ठीक होने में कोई दो-तीन महीने लगेंगे। जब तक चालू नहीं होती तब तक पृथ्वी के नष्ट होने का कोई डर नहीं है। कुल मामला ‘डर’ का ही है और मैं डरना चाहता हूं। आदत जो लग गई है।
खली वाले खेल में मुझे डर ही लगता है और चिन्ता भी होती है। महावीर को पंद्रह-बीस लोगों से भिड़ना होता है। यह खेल ऐसा है कि यहां रेफरी भी सुरक्षित नहीं होता। उसकी भी भयंकर ठुकाई होती है। पहलवान लोग ठांव-कुठांव मारते हैं। मौत का वैसे ही कोई ठिकाना नहीं है। खली भारतभूमि का इकलौते महाबली हैं। वह महफूज रहें ऐसी मेरी शुभकामना है। बाकी सुशील कुमार, राजीव तोमर, जगदीश कालीरमन वगैरह को तो अपन लोग जानते भी नहीं। सुशील भइया की वजह से अब थोड़ा-थोड़ा जानकार हो गए हैं। इसी बात को लेकर एक वरिष्ठ पत्रकार मुझ पर कुपित हो गए। ओलम्पिक से पहले का वाकया है। हुआ यूं कि वह खली को लेकर काफी उत्साहित थे और एक दिन अचानक मेरे मुंह से निकल गया कि 90 फीसद भाइयों को मालूम नहीं कि तीन ऐक्चुअल पहलवान ओलम्पिक के लिए क्वालिफाई कर गए हैं। बस जनाब खेल गए। लगे गियर में लेने का प्रयास करने। मैं जल्दी गियर लगने नहीं देता इसलिए गाड़ी डिरेल होने से बच गई।
भूत-प्रेत से तो सभी डरते हैं। वैसे राखी भी कम डरावनी नहीं हैं। मुझे उनकी बोल्ड बातों और स्टेप से डर लगता है । कमउम्र लड़कियां गुमराह भी हो सकती हैं। एलियन और आकाश गंगा की हलचलों के अपने खतरे हैं। शनि देवता तो छूटे जा रहे हैं। टीवी पर उन्होंने इतना डराया कि बीमारी की हालत में मैं सपरिवार चला गया शनि मन्दिर। वहां भारी भीड़ में किसी ने पर्स मार दिया। पैसे, मकान की चाभी, एटीएम आदि ले उड़ा। वापस जाने के लिए किराया नहीं बचा। माता जी ने कहा कि शनि महाराज ने सस्ते में बचा दिया।
अब देखिए अंक ज्योतिष का कमाल। 08-08-08 को प्रलय होने जा रहा था तो माया सभ्यता की भविष्यवाणी भी कन्दरा में छिपने को कह रही थी। वैसे शून्य से लेकर नौ तक के मूलांक हैं अजीब। कभी कोई खेल कर सकते हैं। 08-08-08 के बाद अब 09-09-09 की बारी है। इसका कुल योग 27 आता है। फिर 2 और 7 को जोड़ देने पर योगफल 9। इस तरह 09-09-09 का योग भी 9। घोर प्रलय। अब 10-10-10 को देखें लगातार तीन 1 कुछ न कुछ संकेत अवश्य करता है। जितनी मर्जी हो डरिए। 11-11-11 में डबल 1 तीन बार। बाप रे बाप! क्या गुल खिलायेगा ये अंकों का महाजाल। अल्लाह जाने क्या होगा आगे?
वैसे, आजकल फेस्टिव सीजन है। लोक तो उत्सवधर्मी है ही। इसलिए टीवी पर इस समय इसी की बहार है। मेरा ‘मंगरुआ’ गरीबी से तंगहाल है। गरीबों को राह चलते ठेंस भी बहुत लगती है। सो, वह तमाम प्रकार से परेशान है लेकिन इस वक्त है मगन। कभी चारपाई पर लेटे-लेटे ‘निबिया के डारि मइया झूलेली झुलनवां’ टेरता है तो कभी होलिका दहन का दृश्य सोचकर रोमांचित हो उठता है। सोच रहा है छोटकी भउजी रहीं नहीं तो अबकी कबीरा किस पर गाऊंगा। वैसे उसकी कई भउजियां हैं। इसलिए छोटकी भउजी का गम कुछ हल्का हो जा रहा है।
अभी दीपावली बाकी है, उसके आगे छठ और हैपी न्यू ईयर है। तत्पश्चात लव यू... लव यू वाला त्योहार वैलेंटाइन डे आ जाएगा। सर...र.... र.... वाले महात्योहार होली का तो मुझे बेसब्री से इन्जार रहता ही है। कुल मिलाकर अभी कई महीने गाड़ी इन्हीं त्योहारों के सहारे सरक जाएगी। बीच में अमर सिंह की ‘चित्थड़-चिरकुट स्टाइल’ राजनीति की खबरों को जिन्दा रखेगी।
मां भगवती सभी का कल्याण करें। शुभ दीपावली!!!

25.10.08

प्यार तो पहली नजर में हो जाता है

यह तो बहुत बुरा हुआ। आतंकवाद के सिलसिले में अब हिन्दू भी धराने लगे। अपराध और आतंकवाद में फर्क है। आतंकवाद देश की सम्प्रभुता के विरुद्ध जंग है। वहीं, अपराध अपनी खीझ या आदत को सन्तुष्ट करने का तरीका। साध्वी ने खीझ मिटाई या हिन्दुस्तान की सम्प्रभुता पर चोट की इस पर गौर करने की जरूरत है। लेकिन सत्य यही है कि विस्फोट करके, बेगुनाहों का कत्ल करके आतंकवाद के विरुद्ध जंग नहीं लड़ी जा सकती। मालेगांव में जो भी लोग मारे गये वो आतंकवादी नहीं थे। शायद मात्र मुसलमान होने की वजह से उनको लक्ष्य बनाया गया। क्या गाहे-बगाहे मुसलमानों को मारकर आतंकवाद का जवाब दिया जा सकता है? कतई नहीं। शायद इस बात को साध्वी समझ नहीं पाईं। यही अतिरेक है। विचार इसी सीमा पर जाकर तालिबानी हो जाते हैं और मनुष्य को राक्षस में तब्दील कर देते हैं। दूसरी बात यह कि इस प्रकार की घटनाओं के हजार खतरे हैं। इसमें साम्प्रदायिक सद्भाव को चोट से लेकर कानून व्यवस्था का हलकान होना तक शामिल है। इसलिए इस प्रकार की कारगुजारियों का कतई समर्थन नहीं किया जा सकता। इसकी निन्दा और भर्त्सना ही उचित है।
यहां एक प्रश्न और खड़ा होता है कि साध्वी ने वास्तव में विस्फोट में सहयोग किया बिना न्यायालय की सहमति के यह कैसे कहा जा सकता है? लेकिन हमें साध्वी को घेरे में लेकर चलना ही पड़ेगा, नहीं तो बाटला हाउस वाले आतंकी भी सन्देह का लाभ पा जायेंगे। हां एक बात जरूर है कि इसमें भाजपा या संघ परिवार को नहीं लपेटा जा सकता। अव्वल तो यह कि किसी भी संगठन में काम करने वाले हर व्यक्ति की गारंटी सम्बन्धित संगठन नहीं ले सकता। संगठन को दोषी तभी ठहराया जा सकता है जब वह उसके क्रियाकलापों का समर्थन करे या स्वयं उस प्रकार का आचरण करे। इस वजह से संघ परिवार को कतई दोषी नहीं ठहराया जा सकता। हर संगठन में तमाम प्रकार के लोग रहते हैं। प्रारम्भिक सूचना के अनुसार साध्वी ---- नाम से अपना संगठन चलातीं थीं। संघ परिवार में इस प्रकार का कोई आनुषांगिक संगठन नहीं है। संघ परिवार का कोई व्यक्ति आगे चलकर अपना संगठन बना और चला सकता है। यह अलग बात है कि अगर ऊपर से ही सही उसका आचरण हिन्दुत्ववादी है तो संघ परिवार या उससे जुड़े लोगों का उसे समर्थन हासिल हो सकता है। आखिर पूरी कुण्डली खंगालकर तो किसी का सहयोग और समर्थन नहीं किया जाता है। प्यार तो पहली नजर में ही हो जाता है और फिर जात-पाति की परवाह कौन करता है। तकलीफें तो पींगें बढ़ने के साथ शुरू होती हैं। इस वजह से शिवराज सिंह चौहान या राजनाथ के साथ साध्वी प्रज्ञा ठाकुर की तस्वीरें धर्मनिर्पेक्ष लोगों के लिए बहुत उपयोगी नहीं साबित हो सकतीं। साधु-महात्माओं के साथ इन लोगों का मिलना-जुलना अक्सर होता रहता है। कोई साधु अन्दर-अन्दर क्या करता है इसकी गारण्टी नहीं ली जा सकती। सामान्य तौर पर हिन्दु समाज में साधु-सन्तों का सम्मान और सत्कार करने की परिपाटी है। लेकिन कुछ-एक साधुओं के आचरण से जनता की इस आदत में बदलाव आया है। अब हर साधु को पाखण्डी समझने का चलन हो गया है जैसे हर नेता को लोग भ्रष्ट समझते हैं। दूसरी बात यह भी कही जाती है कि साधु का काम केवल भजन करना है लेकिन हिन्दू समाज के पतन का यह सबसे बड़ा कारण रहा है, इस पर आम जनमानस कभी गौर नहीं करता। एक मिनट में विचार बना लेना भारतीय समाज की फितरत है। चाहे कोई बुरा ही क्यों न माने लेकिन यह सत्य है कि अभी भी अधिकांश हिन्दुस्तानियों का बौद्धिक विकास न्यून है और चिन्तन-मनन का उनके जीवन में कोई स्थान नहीं है। स्वामी विवेकानन्द ने यह बात बहुत पहले कही थी लेकिन अफसोस कि आज भी इसमें कोई ज्यादा सुधार नहीं हुआ। खैर, विषयान्तर से अब विषय पर आते हैं। साधु-सन्तों को हिन्दु समाज को संगठित और मजबूत बनाने जिम्मेदारी लेनी चाहिए। शरीर से लेकर मन के स्तर तक यह कार्य आवश्यक है। लेकिन बम विस्फोट करके समाज, देश या जाति का भला नहीं किया जा सकता यह तो तय है।

8.10.08

खली की याद सताती है...

मित्रों बैठे-बैठे बकवास हो गई तो उसे छाप दिया। कृपया पढ़कर अपनी राय से अवगत कराएं।

बहुत दिन हुआ खली को देखे। मुझे उनकी याद सता रही है। भूत-प्रेत देखे भी बहुत दिन हुआ। राखी का दीदार हुए भी एक अरसा बीत गया। आकाश गंगा में हर क्षण होने वाले विस्फोट भी अब नहीं सुनाई देते। ‘सावधान! वो आ रहे हैं’ का भी कोई पता नहीं। साईं बाबा के चमत्कार भी अचानक कम हो गए हैं। महामशीन भी बिगड़ गई है। इसके ठीक होने में कोई दो-तीन महीने लगेंगे। जब तक चालू नहीं होती तब तक पृथ्वी के नष्ट होने का कोई डर नहीं है। कुल मामला ‘डर’ का ही है और मैं डरना चाहता हूं। आदत जो लग गई है।
खली वाले खेल में मुझे डर ही लगता है और चिन्ता भी होती है। महावीर को पंद्रह-बीस लोगों से भिड़ना होता है। यह खेल ऐसा है कि यहां रेफरी भी सुरक्षित नहीं होता। उसकी भी भयंकर ठुकाई होती है। पहलवान लोग ठांव-कुठांव मारते हैं। मौत का वैसे ही कोई ठिकाना नहीं है। खली भारतभूमि का इकलौते महाबली हैं। वह महफूज रहें ऐसी मेरी शुभकामना है। बाकी सुशील कुमार, राजीव तोमर, जगदीश कालीरमन वगैरह को तो अपन लोग जानते भी नहीं। सुशील भइया की वजह से अब थोड़ा-थोड़ा जानकार हो गए हैं। इसी बात को लेकर एक वरिष्ठ पत्रकार मुझ पर कुपित हो गए। ओलम्पिक से पहले का वाकया है। हुआ यूं कि वह खली को लेकर काफी उत्साहित थे और एक दिन अचानक मेरे मुंह से निकल गया कि 90 फीसद भाइयों को मालूम नहीं कि तीन ऐक्चुअल पहलवान ओलम्पिक के लिए क्वालिफाई कर गए हैं। बस जनाब खेल गए। लगे गियर में लेने का प्रयास करने। मैं जल्दी गियर लगने नहीं देता इसलिए गाड़ी डिरेल होने से बच गई।
भूत-प्रेत से तो सभी डरते हैं। वैसे राखी भी कम डरावनी नहीं हैं। मुझे उनकी बोल्ड बातों और स्टेप से डर लगता है । कमउम्र लड़कियां गुमराह भी हो सकती हैं। एलियन और आकाश गंगा की हलचलों के अपने खतरे हैं। शनि देवता तो छूटे जा रहे हैं। टीवी पर उन्होंने इतना डराया कि बीमारी की हालत में मैं सपरिवार चला गया शनि मन्दिर। वहां भारी भीड़ में किसी ने पर्स मार दिया। पैसे, मकान की चाभी, एटीएम आदि ले उड़ा। वापस जाने के लिए किराया नहीं बचा। माता जी ने कहा कि शनि महाराज ने सस्ते में बचा दिया।
अब देखिए अंक ज्योतिष का कमाल। 08-08-08 को प्रलय होने जा रहा था तो माया सभ्यता की भविष्यवाणी भी कन्दरा में छिपने को कह रही थी। वैसे शून्य से लेकर नौ तक के मूलांक हैं अजीब। कभी कोई खेल कर सकते हैं। 08-08-08 के बाद अब 09-09-09 की बारी है। इसका कुल योग 27 आता है। फिर 2 और 7 को जोड़ देने पर योगफल 9। इस तरह 09-09-09 का योग भी 9। घोर प्रलय। अब 10-10-10 को देखें लगातार तीन 1 कुछ न कुछ संकेत अवश्य करता है। जितनी मर्जी हो डरिए। 11-11-11 में डबल 1 तीन बार। बाप रे बाप! क्या गुल खिलायेगा ये अंकों का महाजाल। अल्लाह जाने क्या होगा आगे?
वैसे, आजकल फेस्टिव सीजन है। लोक तो उत्सवधर्मी है ही। इसलिए टीवी पर इस समय इसी की बहार है। मेरा ‘मंगरुआ’ गरीबी से तंगहाल है। गरीबों को राह चलते ठेंस भी बहुत लगती है। सो, वह तमाम प्रकार से परेशान है लेकिन इस वक्त है मगन। कभी चारपाई पर लेटे-लेटे ‘निबिया के डारि मइया झूलेली झुलनवां’ टेरता है तो कभी होलिका दहन का दृश्य सोचकर रोमांचित हो उठता है। सोच रहा है छोटकी भउजी रहीं नहीं तो अबकी कबीरा किस पर गाऊंगा। वैसे उसकी कई भउजियां हैं। इसलिए छोटकी भउजी का गम कुछ हल्का हो जा रहा है।
अभी दीपावली बाकी है, उसके आगे छठ और हैपी न्यू ईयर है। तत्पश्चात लव यू... लव यू वाला त्योहार वैलेंटाइन डे आ जाएगा। सर...र.... र.... वाले महात्योहार होली का तो मुझे बेसब्री से इन्जार रहता ही है। कुल मिलाकर अभी कई महीने गाड़ी इन्हीं त्योहारों के सहारे सरक जाएगी। बीच में अमर सिंह की ‘चित्थड़-चिरकुट स्टाइल’ राजनीति की खबरों को जिन्दा रखेगी।
मां भगवती सभी का कल्याण करें।

30.9.08

दुखिया दास कबीर है...

देश में इस समय राजनीति का माहौल चकाचक है। 'नोट के बदले वोट कांड' एक बार फिर से गर्म है। करार के लिए बेकरार पीएम सफल होते जान पड़ रहे हैं। आतंकवादी अपने तरीके से होली-दिवाली मना रहे हैं। पक्ष और प्रतिपक्ष मुखर हैं। चुनाव सन्निकट हैं। दुन्दुभी बज चुकी है। कुल मिलाकर चुनाव लायक माहौल है।
भारतीय लोकतन्त्र में वोट-नोट, सीडी-स्टिंग, कट्टा-कारतूस की मुकम्मल जगह बन चुकी है। अब यह राष्ट्रीय स्तर पर राजनीति के औजार बन चुके हैं। वर्तमान में अमर सिंह इसके इंजीनियर जान पड़ते हैं। कोई दुविधा नहीं कि अमर सिंह जी कुशल कारीगर और कुशल अभियन्ता हैं। वोट और नोट के बीच वह सेतु का कार्य करते हैं। उनकी महिमा अपरम्पार है। वह खुद सेतु भी हैं और उसके अभियन्ता भी। समकालीन राजनेताओं ने उनका लोहा मान लिया है। उमा भारती सरीखी नेता के ‘कर कमल’ में स्टिंग की सीडी थमाकर उन्होंने वाकई कमाल कर दिया। इतने भर से ही वह चुप बैठने वाले नहीं हैं। हाल ही में उन्होने अपने कारीगरी का एक और नमूना पेश किया। कांड के मुख्य गवाह हस्मत अली को ही पुलिस के हवाले कर दिया। बहुत ही मनोरंजक ड्रामा था। मीडिया को फेवर में करने के लिए प्रणाम और स्तुति गान किया। अमर सिंह वास्तव में बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। कुशल अभियन्ता होने के साथ-साथ वह एक कुशल हास्य अभिनेता भी हैं। इस कैटेगरी में उनकी रैंकिंग नम्बर दो की है। पहले पायदान पर वरदान प्राप्त लालू है। हालांकि अमर सिंह उनको कड़ी टक्कर दे रहे हैं। इसी क्रम में उन्होंने शिवराज पाटिल की मिमिक्री कर डाली। इस मिमिक्री से पत्रकारों और आम जनता का मनोरंजन तो हुआ लेकिन खुद अमर सिंह सांसत में फंस गए। गृहमन्त्री और कांग्रेस कुपित हो गई। ड्रामे का अनापेक्षित अन्त हुआ। हस्मत को दिल्ली पुलिस ने छोड़ दिया। अब वह असलियत बयां कर रहा है। अमर सिंह पर संगीन आरोपों की बरसात कर रहा है। मीडिया अमर के चक्कर में नहीं फंसा। अमर की शिकायत का उल्टा असर हुआ। अब देखना है कि हस्मत की शिकायत को पुलिस कितनी संजीदगी से लेती है। वैसे उसके लिए कोर्ट का दरवाजा भी खुला है। ऐसी स्थिति में मेरी चिन्ता का आर-पार नहीं है। मैं ज्यादा चिन्तित मुलायम सिंह को लेकर हूं। धरतीपुत्र मुलायम सिंह को लेकर। लगता है पहलवान पर बुढ़ापा हावी हो रहा है। वह अमर सिंह की बैशाखी लेकर चलने को मजबूर हैं। मुलायम उसी पुराने तरीके से जिलाध्यक्षों और कार्यकर्ताओं की बैठक कर लाठी-डंडा, जेल-बेल की तैयारी कर रहे हैं। उधर अमर सिंह दिल्ली में माल काट रहे हैं और कैमरों के सामने चमका रहे हैं। अब तो अमर सिंह ने सार्वजनिक रूप से कहना शुरू कर दिया है कि मेरे आगमन से पहले सपा उमाकान्त यादव, रमाकान्त यादव सरीखे गुण्डों से पहचानी जाती थी। मुलायम मौन हैं। बागडोर अमर के हाथों में है। राजनीति के एक कद्दावर की टोपी उछल रही है। मुलायम के मुस्लिम तुष्टीकरण और यादववाद की आलोचना उचित ही है। लेकिन मुलायम उत्तर प्रदेश के सर्वाधिक जनाधार वाले नेता भी हैं। किसानों, छात्रों तथा गरीबों की मदद करने की उनकी अपनी विशिष्ट स्टाइल है। उनके राज की गुण्डागर्दी को याद करके रोम-रोम अवश्य सिहर उठता है लेकिन अमर सिंह जैसे योजनाकारों के रहते हुए शुभ की आशा भी नहीं की जा सकती।
जामिया का फैसला देश के शेष विश्वविद्यालयों के लिए नजीर बन सकता है। तमाम विश्वविद्यालयों के कुछ छात्र जरायम पेशा हैं। हत्या, अपहरण और लूटपाट के मामलों में छात्रों की गिरफ्तारी आम है। जामिया के फैसले से ऐसे छात्र राहत महसूस कर सकते हैं। सम्बन्धित विश्वविद्यालय या कॉलेज अब उन्हें कानूनी मदद दे सकते हैं। जामिया ने नजीर स्थापित की है। वह भी तब जब उसके दो छात्र आतंकवादी घटनाओं के सिलसिले में गिरफ्तार किये गये हैं। एक तरफ तो उसने इन दोनों छात्रों को निलम्बित भी कर दिया है, वहीं दूसरी तरफ इनकी बचाव में भी आ खड़ी हुई। जाहिर है कि निलम्बन दिखावटी है। जामिया का फैसला संकेत करता है कि उसे बटाला हाउस की मुठभेड़ पर यकीन नहीं है। अर्जुन सिंह ने भी जामिया के फैसले पर अपनी मुहर लगा दी है। स्पष्ट है कि सरकार को अपने किये पर पछतावा है। आतंकियों के खिलाफ कार्रवाई पर अब वह पश्चाताप करना चाहती है। रामविलास और फातमी भी राजनैतिक स्यापा कर रहे हैं। बकौल फातमी “कानूनी सहायता उपलब्ध कराना सरकार की जिम्मेदारी है।“ फातमी साहब ने सही फरमाया। कानूनी सहयोग सरकार का ही दायित्व है। न्यायालय के आदेश पर ऐसा करना सरकार की जिम्मेदारी है न कि जामिया की जिम्मेदारी। उसे आतंकी और तालबीन के बीच फर्क की जानकारी अवश्य होगी। कुछ चीजों को कानून के सत्यापन की आवश्यकता नहीं होती। समय आने पर चीजें खुद-बखुद स्पष्ट हो जायेंगी। लेकिन मैं ख्वामख्वाह चिन्तित हूं। कबीर भी चिन्तित थे 'सुखिया सब संसार है खाये अउ सोवे, दुखिया दास कबीर है जागे अउ रोवे। ' दरअसल मेरी चिन्ता मुलायम सिंह को लेकर है।
वेद रत्न शुक्ल
bakaulbed.blgspot.com

24.9.08

बाबू बड़ा न भैया सबसे बड़ा रुपैया

बेचारे मजदूरों के बेचारे मजदूर मन्त्री ऑस्कर फर्नान्डिस एक बयान देकर फंस गए। माफी मांगते-मांगते बुरा हाल है। मजदूरों के मन्त्री की औकात भला कितनी हो सकती है। खजाना मन्त्री होते तो और बात होती। ग्रेटर नोएडा की एक मल्टीनेशनल कंपनी में मजदूरों और प्रबन्धन के बीच झड़प हो गई। झड़प में लाठी-डंडे और पत्थर चले। प्रबन्धन के पास किराए के गार्ड थे तो मजदूरों के पास पेट की भूख। भूख की ज्वाला सही नहीं जा रही थी ऊपर से गार्डों की बदसलूकी। पानी सिर से ऊपर हो गया तो ईट-पत्थर चलाने पर उतर आए। मजदूर महीनों से आंदोलनरत थे। बावजूद इसके उनकी कोई सुनने वाला नहीं था। इस देश में मजदूरों की भला कौन सुनता है। बेचारे ऑस्कर ने कह दिया कि इस घटना से फैक्ट्रियों के प्रबन्धन को सबक मिलेगा। दरअसल उन्होंने कुछ गलत नहीं कहा। सीईओ स्व. चौधरी की मौत पर उन्होंने दुख भी जताया लेकिन साथ में मजदूरों के पक्ष में लगने वाली उपर्युक्त बात भी कह दिया। यही उनकी गलती है। ऑस्कर के कहने का आशय यही था कि इस घटना के बाद बड़ी कंपनियों का प्रबन्धन निश्चित रूप से यह सोचने पर मजबूर होगा कि मजदूरों को उनका वाजिब हक दिया जाए ताकि ग्रेटर नोएडा जैसी स्थिति न पैदा हो।
यह वही देश है जहां राजस्थान में पानी मांग रहे किसानों की हत्या कर दी जाती है। मायावती के गांव में आन्दोलनकारी किसानों की हत्या पुलिसवाले कर देते हैं। यहीं ग्रेटर नोएडा में ही पिछले साल एक निर्माणाधीन गोल्फ क्लब में गुस्साए मजदूरों पर भाड़े के गार्ड ने गोली बरसा दी और परिणाम मौत के रूप में सामने आया। गुड़गांव में मेरी आंख के सामने हरियाणा पुलिस ने हीरो होंडा कम्पनी के मजदूरों की बर्बर पिटाई की। और जगहों की पुलिस बेंत के डंडे रखती है लेकिन हरियाणा पुलिस शुद्ध बांस की लाठी। मारो तो सीधे फ्रैक्चर, अंग भंग हो जाए। मजदूरों के साथ छोटी-मोटी बदसलूकी की असंख्य घटनाएं तो रोज ही घटती हैं। ऐसी घटनाओं की सुधि लेने वाला कोई नहीं होता क्योंकि यह मजूरी-धतूरी करने वाले से संबंधित होती हैं।
खैर, ग्रेटर नोएडा में ग्रेजियानो कंपनी के सीईओ की दुखद मौत हो गई। झड़प में हुई मौत को कतई सही नहीं ठहराया जा सकता। इस घटना को टाला जा सकता था लेकिन अफसोस! कि ऐसा नहीं हो पाया। इसके पीछे के कारणों की पड़ताल होनी चाहिए। देश में कम से कम मल्टीनेशनल कंपनियों या अन्य देशी कंपनियां जिनके पास पूंजी का कोई अभाव नहीं है उनसे यह उम्मीद की जानी चाहिए कि वे श्रम नियमों का सही से पालन करेंगे। इन नियमों का पालन कराने की जिम्मेदारी सरकार की है। लेकिन सरकार ऐसा कराने में अब तक विफल रही है। यहां तो मजदूरों के लिए सप्ताह में दो दिन की छुट्टी और बीमा, पीएफ से लेकर अन्य तमाम सुविधाएं मिलनी चाहिए। सुविधाओं का पिटारा सिर्फ कम्पनियों के लिए ही क्यों? मजदूरों के लिए क्यों नहीं? कंपनी को दस एकड़ भूमि की जगह पचास एकड़ भूमि क्यों? सेज के नाम पर कहीं प्रॉपर्टी डीलिंग के लिए तो नहीं भूमि दी जा रही है। इस स्थिति में अगर किसान आन्दोलन करें, कोई उनका रहनुमा बने तो वो विकास विरोधी। पुरखों की जमीन खो देने वाले किसान के दर्द का कोई पुरसाहाल नहीं।
आइए मूल मुद्दे पर चलें। अमेरिका गए प्रधानमन्त्री ने सीईओ की मौत के मामले में वहीं से हस्तक्षेप किया है। मजदूर मरता तो कोई पीएमओ हस्तक्षेप नहीं करता। दरअसल पीएमओ चिन्तित है कि इस घटना से भारत में विदेशी निवेश पर असर पड़ेगा। जहां माल की बात हो वहां मजदूर तो गौड़ हो ही जायेगा। देशवासियों गुनगुनाइए 'बाबू बड़ा न भइया सबसे बड़ा रुपैया'
राहुल गांधी पंजाब दौरे पर हैं। गांव-गांव, शहर-शहर घूम रहे हैं। इसे हमें लोकतन्त्र की जय के रूप में देखना चाहिए। जबकि ऊपर की घटना फेल लोकतन्त्र की प्रतीक है। लोकतन्त्र की जय इसलिए की युवराज अब घर-घर घूम रहे हैं। कभी कलावती का घर तो कभी मंगरुआ का घर उनके रात का आशियाना बन रहा है। झोपड़ी को वह एक दिन के लिए ही सही अपना ठिकामना बना रहे हैं। पहले के समय में ऐसा नहीं था। तब नेता दिल्ली से हाथ जोड़कर आता था और चुनाव जीतकर टाटा-बाय-बाय करते हुए वापस दिल्ली चला जाता था। कलेक्टर साहिब सिर्फ मीटिंग करने के लिए बने होते थे लेकिन अब अपनी साख बचाने के लिए शासन उनको कभी बंधा पर तो कभी हरिजन बस्ती में दौड़ाता है। बचपन से लेकर अब तक मैंने ऐसी स्थिति में भारी बदलाव देखा है। एक उदाहरण गोरखनाथ पीठ का देना चाहूंगा। गोरखपुर सदर संसदीय सीट पर यहां की पीठ का शुरू से कब्जा रहा है। बीच-बीच में ही कुछ लोग यहां से सांसद हो पाए हैं। पहले महन्थ दिग्विजय नाथ फिर महन्थ अवैद्य नाथ पुन: तीन बार से योगी आदित्य नाथ। योगी से पहले कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था कि 'महाराज जी'(श्रद्धा से लोग यही कहते हैं) घर-घर वोट मांगने आयेंगे। पांच किलोमीटर के दायरे में किसी चौराहे पर भी इनकी सभा नहीं होती थी। एक विधानसभा क्षेत्र में केवल एक जगह पर मंच लगाकर महाराज जी लोग आशीर्वाद, साधुवाद दे दिया करते थे। लेकिन वक्त के साथ राजनीति का तकाजा भी बदला और अब घर-घर जाकर काम करना पड़ता है और वोट भी मांगना पड़ता है। जनता अब ज्यादा सजग हो गई है और उसमें जातीय या अन्य कई प्रकार की चेतना आ गई है। इसलिए अब किसी की भी सीट सुरक्षित नहीं रही। मजबूरन लोगों को गली-गली की खाक छाननी पड़ रही है। लेकिन अफसोस कि मीडिया अब भी राहुल को 'युवराज'कहता है। लोकतन्त्र में कोई राज-युवराज नहीं। वैसे भी राहुल की लोकप्रियता तो है लेकिन उनके पास वोट नहीं है।

17.9.08

कितनी सहूलियत हो अगर आतंकवादी रोज विस्फोट करें!

देश की राजमंडली लकदक रहे तो कितना ठीक है। राजा साहिब बनाव-श्रृंगार नहीं करेंगे तो भला कौन करेगा, मेरा 'मंगरुआ'। गृह मन्त्री शिवराज पाटिल छैला बनकर नहीं घूमेंगे तो कौन घूमेगा। वैसे भी मुझको उनमें फिल्मी खलनायक अजीत या प्राण का अक्स नजर आता है। आप को अगर ठीक से याद आता हो तो बताइयेगा कि शिवराज बाबू किस फिल्मी पर्सनैलिटी की तरह लगते हैं। बहरहाल, शिवराज बाबू ने लोगों के सुविधानुसार ही वस्त्र धारण किया। विस्फोट से पहले पार्टी मीटिंग में गए तो बिल्कुल सौम्य ग्रे कलर का सूट पहनकर। वहां सोनिया-वोनिया जी कितने सारे लोग रहते हैं। मीडिया के सामने आए तो थोड़ा गहरे कलर का सूट पहन लिया। मीडियावाले ही बताएं कि आखिर कैमरे के सामने कपड़ों के रंग का महत्व होता है कि नहीं? बेचारे सुविधा भी प्रदान करते रहें और खिंचाई भी होती रहे, कैसा जमाना आ गया है। उसके बाद अस्पताल गये, मर-मरा गये और घायल लोगों का हालचाल लेने तो सफेद रंग का सूट पहन लिया। मीडिया के लोग जैसे सिनेमा देखते ही नहीं हैं। देखते नहीं वहां दरवाजे पर लाश पड़ी रहती है और परिजन एकदम झक सफेद कपड़े पहनकर विलाप करते हैं। कितने धैर्यशाली लोग होते हैं। घर में मौत पक्की हुई तो तुरन्त दहाड़ें मारना नहीं शुरू करते गंवारों की तरह। पहले जाते हैं वार्डरोब में से फ्यूनरल ड्रेस निकालते हैं तब रोना-धोना शुरू करते हैं। चाहे स्त्री हो या पुरुष सभी इस तरह का संयत व्यवहार करते हैं। इन फिल्मों को देखकर मुझे लगता है कि जरूर धनवान लोग दो-तीन जोड़ी फ्यूनरल ड्रेस बनवाकर रखते होंगे। तो अपने शिवराज जी भी सफेद सूट-बूट पहनकर गए शोक-संवेदना जताने।
आतंकवादियों ने अपने तयशुदा कार्यक्रम के तहत दिल्ली में बम विस्फोट कर दिया। उन्हें तो ऐसा करना ही था। अल्लाह के बन्दे हैं जो चाहें सो करें। कौन है उनको रोकने वाला। हमारी सरकार भी कम होशियार थोड़े है। उनकी इस घिनौनी हरकत से भी वह कुछ नया सीख लेती है। बकौल गृह सचिव 'हर बार के विस्फोट से अपना गृह मन्त्रालय कुछ नया सीखता है।' कितनी सहूलियत हो अगर आतंकवादी रोज विस्फोट करें, अपना गृह मन्त्रालय रोज कुछ न कुछ नया सीखेगा। मुफ्त की क्लास, मुफ्त का ज्ञान। कुल मिलाकर मुफ्त की पाठशाला। दरअसल इस्लामिक आतंकवाद के कीड़े पैर पसार चुके हैं और हमारी व्यवस्था से तो अब पायरिया की सी बदबू आने लगी है।
मैंने शुरू में ही देश के राजमंडली की जय कर दी है। झूठे थोड़े ही की है। वहां लालूजी हैं, रामविलास भाई हैं। दोनों सिमी समर्थक हैं। रामविलास भाई लादेन के भी जबर्दस्त फैन हैं। याद कीजिए २००४ बिहार विधानसभा का चुनाव। उस समय रामविलास भाई लादेन के एक हमशक्ल को लेकर चुनाव प्रचार कर रहे थे, तब भी मैंने लिखा था कि ऐसा करके वह एक समुदाय विशेष को कटघरे में खड़े कर रहे हैं। सौभाग्य से लादेन या रामविलास को मुसलमानों का समर्थन नहीं प्राप्त हुआ। लेकिन ऐसे धुरंधरों के रहते हुए आतंकवादियों को निश्चित राहत महसूस होती होगी। सोचते होंगे कि हमारा भी कोई तगड़ा आदमी वहां है। वैसे भी इस मुल्क में उनके तमाम हित-बन्धु पैदा हो गए हैं। कोई डॉक्टर है तो कोई इन्जीनियर, कोई मुल्ला तो कोई मौलवी, कोई कुछ तो कोई कुछ। उनको पूरी तरह मुतमईन रहना चाहिए। दिग्गज धर्मनिर्पेक्षों के रहते उनका कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता। आतंकवादी अबुल बशर की गिरफ्तारी होगी तो एक से एक आला नेता पहुंचेंगे। जरूरी राहत और इमदाद देंगे। ऐसे में हे प्यारे आतंकवादियों! एकदम निश्चिन्त रहो, मन लगाकर अपना काम करो। लेकिन शिवराज भाई ''जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी, सो नृप अवसि नरक अधिकारी।''