29.11.08

देश को शिवराज से और शिवराज को देश से...

गृह मंत्री को इस्तीफे के बाद त्वरित टिप्पणी

शिवराज पाटिल को देश से और देश को शिवराज से फुर्सत मिल गई। परिणामस्वरूप दोनों तरफ खुशी का माहौल है। एक बड़े दु:ख के बाद देशवासियों को थोड़ी राहत मिली। सूखे कण्ठ को जल की दो बूंदें मिल गईं। सूत्रों ने सूचना दी है कि शिवराज बाबू की भी खुशी का ठिकाना नहीं है। बनाव-श्रृंगार उनके जीवन में बहुत अहमियत रखते हैं। इनसे उनको दिली लगाव है। इसके लिए उनके पास अब पर्याप्त समय रहेगा। वह कुछ भी छोड़ सकते हैं लेकिन साज-श्रृंगार नहीं। अब न उन्हें समय की कमी रहेगी और न उनपर मीडिया की नजर रहेगी। अब जहां चाहें ‘छैला’ बनकर घूमें। दिनभर में आठ सूट बदलें चाहे अट्ठारह, चाहे दो कंघी रखें चाहे दो सौ। अब कोई उन्हें परेशान नहीं करेगा। चलिए बड़ा अच्छा हुआ उनके लिए भी और देश के लिए भी। कांग्रेस की डैमेज कंट्रोल की इस कार्रवाई से उसे कितना लाभ होगा कृपया अपनी राय दें।

26.11.08

आतंकवादी हमला और मेरा रात्रि जागरण

भोर में 4 बजे त्वरित टिप्पणी
देश दहल गया। हिल गयी मुम्बई। हिल गया भारतीय जनमानस। शहीद हो गए हेमन्त करकरे। कई अन्य पुलिस अधिकारी और सिपाही भी युद्धक्षेत्र में शहीद हो गये। यह पूरी तरह से युद्ध है। सरकार और तमाम नेताओं को अब यह मान लेना चाहिए। रात दो बजे तक की सूचना के अनुसार दो आतंकी भी मारे गये हैं। मेरा मन डर रहा है। मुझे शंका है कि कहीं करकरे की शहादत को भी अमर सिंह झूठा न बता दें।
आतंक की जड़ें देश में गहरे पैठ चुकी हैं। दिल्ली विस्फोटों के बाद बाटला हाउस एनकाउंटर व अन्य गिरफ्तारियों से मुझे लगने लगा था कि सिमी टूट गया, बिखर गया। अब आतंक को खड़े होने में समय लगेगा। क्योंकि बताया जा रहा था कि अब देश के लोग ही आतंकी बनने लगे हैं और इनकी तादाद बहुत कम है। बाहर से सिर्फ इनको खाद-पानी मिलता है। सांस ये यहीं की हवा में लेते हैं। दिमागी और माली इमदाद ही इन्हें बाहर से मिलती है। बाहर के आतंकी अब सेंध लगाने में सक्षम नहीं रहे। लेकिन मेरी सोच भ्रम थी जो टूट गई। आतंकवादी बाजे पर नेता तराना तो गुनगुनाते ही हैं। लेकिन इस बीच नेता और बुद्धिजीवियों ने तराना गाना छोड़ दिया और बहुत गम्भीरता से आतंकवाद के बीच एक नये आतंकवाद ‘हिन्दू आतंकवाद’ की थियरी इस्टैब्लिश करने में जुट गये थे। इसे हम थियरी कहें या हाइपोथिसिस समझ में नहीं आता। बहरहाल, लोगों का ध्यान आतंकवाद, सरकार की असफलता आदि से हटने लगा। इस नयी थियरी को लेकर देश में बहस-मुबाहिसों का दौर चालू हो गया। बैठकें गर्माने लगीं। बुद्धिजीवियों और मीडिया के हाथ पर्याप्त मसाला लग गया। कुल मिलाकर असल मुद्दे से ध्यान हट गया। साध्वी प्रज्ञा इस नये आतंकवाद की प्रणेता बतायी गयीं।
फिलहाल विदेशी मीडिया पर भी रात के तीन बजे मेरा ध्यान है। उनका जोर इस बात पर है कि आतंकी ब्रिटिश और अमेरिकन की तलाश में थे। एक प्रत्यक्षदर्शी के हवाले से बीबीसी यह बात बार-बार गोहरा रहा है। उसका कहना है कि आतंकियों ने पूछा कि किसी के पास ब्रिटिश या अमेरिकन पासपोर्ट है? खैर उनकी चिन्ता जायज है। अपने देश के नागरिकों की वे चिन्ता करें तो यह उचित ही है। उन्हें ऐसा करना ही चाहिए। भारत के नक्शे-कदम से वे दूर हैं, यह राहत की बात है। देर-सबेर यहां के नेता भी इससे सबक ले सकते हैं। हो सकता है कि वे समझ जाएं कि पहले देश है, देश के नागरिक हैं तब और कुछ है। उनकी बेहद निजी राजनीति भी और कुर्सी भी। लेकिन बुद्धिजीवियों को क्या कहा जाए वे किस लालच में अंट-शंट क्रियाकलाप करते रहते हैं। समझ से परे है। झटके में बुद्धिजीवी बनने के फेर में, उदारवादी दिखने के फेर में, अहिंसावादी बनने के नाटक के तहत ऐसा स्वांग रचाया जाता है। निर्मल वर्मा ने एक बार कुछ इसी तरह का आशय जाहिर किया था।
अब रात के 3 बजकर 25 मिनट हो रहे हैं। ओल्ड ताज होटल की ऊपरी मंजिल में आतंकियों ने आग लगा दी है। यह होटल विश्व धरोहर में शामिल है। 105 साल पुराना है। आधुनिक हिन्दुस्तान के निर्माताओं में से एक जमशेद जी टाटा का मूर्त सपना। मैं टीवी पर इसे धू-धू कर जलते हुए देख रहा हूं। संवाददाता फायरिंग के राउंड गिनने में व्यस्त हैं। दोनों की अपनी मजबूरी है। मुझे पाकिस्तान के प्रसिद्ध होटल में हुए धमाके की याद आ रही है। यकीन मानिए उस समय मैंने सोचा था कि भारत में ऐसा नहीं हो सकता। उस हमले के बाद सुबह-सुबह अपने सहकर्मियों से बातचीत में मैंने कहा कि “हालांकि यहां भी आतंकवाद है, खूब है लेकिन उसकी तीव्रता उतनी नहीं। यहां एक ट्रक विस्फोटक कोई इकट्ठा नहीं कर सकता और इकट्ठा कर भी ले तो ऐसे ले के घुस नहीं सकता। पहली बात तो यह कि इतना साज-ओ-सामान कोई जुटा ही नहीं सकता…” ऐसा मैंने दृढ़ मत व्यक्त किया था। सुनते हैं कि पाकिस्तान में सरकार और कानून नाम की कोई चीज नहीं है। वहां कठमुल्लों का शासन है। लेकिन मेरा भ्रम फिर टूट गया। पाकिस्तान की तरह हिन्दुस्तान में भी वैसा ही हो गया। बल्कि उससे भी ज्यादा भीषण हमला हुआ। वहां ट्रक पर लदा विस्फोटक गेट तोड़ते हुए घुसा और दग गया। लेकिन यहां तो बाकायदे मोर्चेबन्दी हुई और खौफनाक मंजर सामने है। लगभग छ: घण्टे हो गये लेकिन आतंकियों का तांडव थमने का नाम नहीं ले रहा है। देश ने यह समय भी देख लिया। मेरे विचार से मध्ययुग में, 1857 की क्रांति के समय तथा विभाजन के वक्त जो घाव लगे, जो प्रहार हुए मुम्बई पर हुआ हमला उन्हीं के टक्कर का है। पता नहीं लोग अब साध्वी प्रज्ञा की चर्चा करेंगे या नहीं। एटीएस ने तो अपना प्रमुख ही खो दिया। जो फिलवक्त साध्वी प्रज्ञा प्रकरण के चलते इस समय काफी चर्चा में थे। हालांकि मुझे आशा ही नहीं अपितु पूर्ण विश्वास है कि धर्मनिर्पेक्ष जन साध्वी की ही चर्चा करेंगे। मूल तत्व पर न वह प्रहार करेंगे न सरकार। काश! वह ऐसा करते। तब शायद उन्हें यह नया काम 'हाइपोथिसिस ऑफ हिन्दू टेररिज्म' नहीं करना पड़ता।
और अब अंत में दो बातें और। आतंकियों ने अबकी बहुत देर तक तांडव मचाया। तांडव के लम्बा खिंचने से देश-विदेश का मीडिया तमाम मौकों पर पहुंच गया और सारा कुछ लाइव हो गया। वैसे, अमर, लालू, पासवान यह प्रश्न अवश्य पूछ सकते हैं कि करकरे ने बुलेटप्रूफ जैकेट पहनी थी या नहीं? ऐसे मौके पर घटिया राजनीति की बात करते समय मेरा मन खट्टा हो रहा है। लेकिन देश की कमान जब घटिया हाथों में हो तो अच्छे की उम्मीद कैसे की जा सकती है?

22.11.08

आँख मारने का चलन अब नहीं रहा

आँख मारने का चलन अब नहीं रहा। यह एक किस्म की छेड़खानी थी। इसे आप प्रणय निवेदन भी कह सकते हैं। प्रेमिका के प्रति प्रेम के इजहार के लिए प्रेमी द्वारा सामान्यत: यह घटना की जाती थी। साधारणतया इसे प्रेमीजन ही आजमाते थे और प्रेमिका के इशारे का इन्तजार करते थे। कहें कि इस कर्म पर पुरुष वर्ग का ही अधिकार था। तब प्रेम निवेदन की पहल पुरुष ही करते थे। शुरुआत करने का जिम्मा उन्हीं के कन्धों पर था। लड़कियों में नारी सुलभ लज्जा होती थी। आज भी होती है (मैं जूतम-पैजार नहीं चाहता)। गोया कि लड़के जब किसी पर फिदा होते तो उसे आँख मारते थे। मैं अब आँख मारने की विधि भी बताऊंगा हालांकि मैं खुद कभी इस योग्य नहीं हुआ। लोग पूछ सकते हैं कि ‘आँख मरौअल’ के पीछे इतना क्यों पड़े हैं? कोई अच्छी सी समाज सुधारू टाइप पोस्ट लिखते। लेकिन मैंने ठान लिया है कि आँख मारने के इस नष्ट हो रहे चलन पर ही अंगुलियां फिराऊंगा। जाने क्यों बहुत दिनों से कुछ लिख नहीं पा रहा हूं। अटल जी ने कहा था कि लेखन बहुत अवकाश मांगता है। लेकिन तमाम ऐसे लोग हैं जो अतिव्यस्त और परेशान होते हुए भी लिखते हैं। खैर, विषय पर आते हैं। जमाना बदल गया है। अब प्रेमपाठी लोग आँख मारने के बजाय मिस काल करते हैं। वैसे, मिस काल करने में रिस्क ज्यादा है। इसमें अगले के मोबाइल पर आपका नम्बर आ जाता है। वहीं आँख मारने में यह खतरा प्राय: नहीं रहता था। अगर लड़की ने शिकायत भी कर दिया तो साफ मुकर सकते थे। मैंने तो ऐसा नहीं किया। कह सकते थे कि उसको गलतफहमी हुई होगी। वैसे कई लड़के कहते थे कि आँख में ऐसे ही दर्द हुआ तो जरा सा मुलका दिया। हालांकि यह बहाना पकड़ा जाता था। वैसे ही जैसे ‘ग्वाल बाल सब बैर पड़े हैं, बरबस मुख लपटायो’।कई शातिर किस्म के लोग कह देते थे कि ‘’जाने दीजिए! बदमाश है, ऐसे ही नौटंकी करती रहती है।’’
तो जमाना बदलने के साथ-साथ लोगों की स्मार्टनेस में भी भारी इजाफा हुआ है। अब लोग ज्यादे बोल्ड हो गए हैं। याद करिए जब बदलाव की बयार बह रही थी तो एक सिनेमा आया जिसमें इलू-इलू गाना चला... दिल करता है इलू-इलू...। तो लोगों ने पकड़ लिया इलू-इलू। इसे ही इशारा बना लिया। लेकिन गाना इतना चल गया था कि इलू का फुल फार्म बच्चा-बच्चा समझने लगा। जैसा कि मैंने कहा कि अभी बयार बहनी शुरू हुई थी तो थोड़ा बहुत शील-संकोच बचा था। समय ने और करवट बदली तो मामला ओपन हो गया। भाई लोगों ने सीख लिया कि ‘आजू-बाजू मत देख आई लव यू बोल डाल।’ वैसे अब और एडवान्स समय आ गया है। जरा सा साथ हुआ तो तुरन्त बोल दिया कि सिनेमा देखने चलें। बाद में डेटिंग-सेटिंग तक चले जाते हैं। यह पहल अब सिर्फ लड़कों के जिम्मे नहीं रही, लड़कियां भी बराबर की भागीदारी निभा रही हैं। कन्धे से कन्धा मिलाकर चल रही हैं।