25.12.08

भयंकर टारगेट के बाद हत्या और हल्ला


ध्यान योग्य तथ्य--- यह सब बातें बिल्कुल नयी नहीं हैं। सब लोग इन्हें जानते हैं।


टारगेट भयंकर होने पर कारिन्दा या तो हत्या कर देगा या आत्महत्या कर लेगा। मायावती की दुकान के कारिन्दे ने कुछ ऐसा ही किया। चूंकि कारिन्दा बाहुबली था इसलिए आत्महत्या की बजाय हत्या कर दिया। दूसरी बात एक गम्भीर सवाल बन जाती है। क्या यूपी में अधिकारी इतनी रिश्वत लेते हैं कि उनसे 50 लाख रुपये चन्दा मांगा जा सके? इसका उत्तर है... हाँ...। बड़े अधिकारी के लिए यह रकम कोई बहुत नहीं। जनता के धन में से वह 10-20 करोड़ इधर-उधर तो कर ही देता है। एक और बात यूपी में टिकट की दुकान सजती है जहां से लुटेरे इसकी खरीद-फरोख्त कर लेते हैं। जिसके बाद वह माननीय बन जाते हैं। एक प्रश्नोत्तर पर और नजर डाल लीजिए- क्या यूपी में गुण्डे लोगों को मारते-पीटते और सड़क पर घसीटते हैं। जी हां! मैंने ऐसा अपनी आँखों से देखा है। यह भी देखा है कि उसे मारने के बाद थाने ले जाया जाता है जहां जिन्दा बच जाने पर उसे जख्मी हालत में जेल भेज दिया गया। यहां तो इन्जीनियर साहब मरकर मुक्ति पा गए नहीं तो उन्हें भी जेल जाना पड़ता। ऐसी घटनाओं के बाद यूपी में आमतौर पर वही लोग हल्ला मचाते हैं जो ऐसे खेल में आकण्ठ डूबे हुए हैं। लेकिन वे करें भी तो क्या गर हल्ला न मचाएं। वे हल्ला शायद इसलिए मचाते हैं कि आगे उन्हें यह सब करने का अधिकार हासिल हो सके। दुख यह कि जनता कभी हल्ला नहीं मचाती है वह आमतौर पर चुप रहती है। उसे हल्ला देखने में मजा आता है मचाने में नहीं।

अबकी बार बहनजी के शासन की शुरुआत में आस तो बंधी थी लेकिन अब ऐसा नहीं है। अब उनके गुण्डे मुलायम के गुण्डों की तरह बेलगाम हो गए हैं। ऐसे ही दो प्रकरणों पर मैंने एक अप्रकाशित (किसी कारण से) खबर लिखी थी। कृपया इस पर भी गौर फरमाएं---
पने यहां रसूख वाले लोग अपराध करने के बाद जेल की जगह अस्पताल जाया करते हैं। अपराध की तैयारी या उसे कारित करने के वक्त ये असाधारण और अदम्य साहस का परिचय देते हैं। लेकिन अपराध हो जाने के बाद न जाने कैसे वह डिप्रेशन का शिकार हो जाते हैं। अक्सर इनको सीने में ही तकलीफ हो जाती है और रक्तचाप हिमालय यात्रा पर निकल पकड़ता है। इस स्थिति में मानवाधिकार और कानून का तकाजा इन्हें जेल के बजाय अस्पताल पहुंचा देता है। माननीय लोग आमतौर पर सुविधा में खलल बर्दाश्त नहीं करते।
आज और कल, कल और आज अपने गोरखपुर की भी तस्वीर ऐसी ही है। अपने और सूबे के पूर्व मंत्री जमुना निषाद महाराजगंज कोतवाली गोलीकांड याकि हत्याकांड में अभियुक्त बन गए तो हंगामा बरपा। बहन जी की दृष्टि थोड़ी तिरछी हुई तो बेचारे जेल चले गए और मंत्री पद भी गंवा बैठे। खैर माननीय थे इसलिए जेल में तो रह नहीं सकते थे। तब से अब तक लगातार अस्पताल में आराम या कहें कि स्वास्थ्यलाभ ले रहे हैं। मेरे विचार से स्वास्थ्यलाभ लेने के लिए न्यायिक अभिरक्षा से अच्छा और कोई समय नहीं सकता। मुफ्त का इलाज और भोजन तथा खाली समय और खैरख्वाहों की भीड़, आदि...आदि। बात जमुनाजी की हो रही है तो थोड़ा तफ्सील से बता दें कि इनको हुआ क्या है। पहले तो इनको दिल की बीमारी ने आ घेरा और उसका इलाज-पानी हुआ। डॉक्टर कहते रहे कि सब ठीक है, दवा जेल में भी चलती रहेगी। लेकिन जमुनाजी संघर्षशील व्यक्तित्व के धनी हैं इसलिए संघर्ष कर-करके- कर-करके बता डाले कि नहीं मेरा इलाज मेडिकल कॉलेज जैसी ही किसी जगह पर हो सकता है। वह भी किसी अच्छे-भले झकास टाइप के रूम में। संघर्ष की जीत हुई और जमुना जी गोरखपुर-टू-गोरखपुर वाया देवरिया जेल की यात्रा बजरिए अस्पताल पूरी कर रहे हैं। पहले दिल ने दग-दग किया अब पेट से नीचे हलचल होने लगी। आमतौर पर यह हलचल पानी भरने से उत्तपन्न होती है। और इस हलचल का एक ही शर्तिया इलाज है ऑपरेशन। तो जमुनाजी के भी इस अंग विशेष की चीरफाड़ हो गई। वैसे यह अंग नितांत निजी होता है लेकिन चूंकि यहां मामला जनप्रतिनिधि का है इसलिए इसकी भी चर्चा करनी पड़ रही है। अंदर तक पैठ रखने वाले सूत्र बता रहे हैं कि पानी भरा ही नहीं था। पत्रकार हैरान और परेशान है कि इतने अहम अंग की अनायास चीड़फाड़ क्यों कराई गई। जवाब सीधा है कि माननीय लोग जेल में तो रह नहीं सकते और अस्पताल में रहने के लिए कोई तो बहाना चाहिए।
अब आइए ताजातरीन मामले पर नजर डालते हैं। विगत दिनों शहर में गैंगवार हुआ, जमकर गोलियां चलीं। महानगर थर्रा गया। यहां कि फिजा में अब जब-जब थरथराहट होती है तो विनोद उपाध्याय नाम के बसपा नेता का नाम सुर्खियों में होता है। गुजिश्ता कुछ सालों से तो बहरहाल यही हाल है। गोया कि अबकी भी विनोद उपाध्याय का नाम प्रकाश में आया और बसपा की पुलिस को उन्हें गिरफ्तार करना पड़ा। कहानी का विस्तार आगे कुछ इस तरह से होता है। वारदात के बाद सारे शहर का रक्तचाप उच्च हुआ तो स्वाभाविक रूप से इन नेता जी का भी हुआ। होता भी क्यों नहीं। इसी शहर की हिफाजत, विकास व अन्य तमाम मुद्दों को लेकर ये नेता बने हैं तो चिन्तित होना लाजिमी है। बहरहाल श्री उपाध्याय का भी रक्तचाप-वक्तचाप असामान्य हो गया और सीने में तकलीफ-वकलीफ पैदा हो गई। इस तरह श्री उपाध्याय अस्पताल में विश्राम करने लगे। इस हालत में बिगड़ी तबियत को कायदन ठीक नहीं होना चाहिए था लेकिन कमबख्त ठीक होने लगी। अब बसपा के प्रशासन को चिन्ता सताने लगी कि नेता जी को कहीं जेल न भेजना पड़े। इसलिए न्यायालय को बताया गया कि इस शेर दिल नेता को हरी-पीली टट्टियां-वट्टियां होने लगीं हैं और इसके लिए जेल से बाहर अस्पताल में रहना बहुत जरूरी है। न्यायालय माननीय होता है इसलिए बता दिए नहीं तो बताते भी नहीं। यू हीं अस्पताल में रखते, सेवा-सुश्रुषा करते। लेकिन माननीय न्यायालय ने फटकार लगाई है और पूछा है कि ऐसा कैसे?

24.12.08

गांव-शहर पर लम््बी टिप््पणी

मैंने यह टिप््पणी 'मोहल््ला' में लिखी। 'गांव रहने लायक हैं मगर किसके लिए...' पर अपनी राय दी। अब आप बताएं कि मुफ््त में इतनी लम््बी राय देना क््या जायज है।
शहर में हर गली में ठगी और लूट है। दूकानदार और लोग बेतरह लूटते हैं, जानते हैं कि फिर भेंट नहीं होनी है। आदमी सम्बन्ध पैसे के आधार पर तय करते हैं, आदमियत की तो कोई जगह ही नहीं। अगर किसी के मकान में एक दिन ज्यादा रुक जाएं तो वह आपसे 15 दिन का किराया वसूलना चाहता है। अगर कोई चूड़ा-दही खाना चाहता है तो इसमें आपको क्यों आपत्ति है? आपके पास उपलब्ध है तो खिलाइए अन्यथा न खिलाइए। अगर आपको दिक्कत ही है तो चूड़ा-दही और कपड़ा निकालकर खाने वाले लोग अब सिर्फ गिनती के बचे हैं और कई गांवों में तो हैं ही नहीं। इनसे चिन्तित होने की जरूरत नहीं है। दूसरी ओर यह भी सही है कि गंवईं राजनीति खतरनाक स्तर तक पहुंच गई है। इसके लिए जातिवाद ज्यादा और पंचायतों को मिले अधिकार थोड़े कम जिम्मेदार हैं। मण्डल कमीशन लागू होने के बाद इसमें भयानक वृद्धि हुई। गांव कत्लगाह बनते जा रहे हैं। हालांकि कई लोग इस परिवर्तन को पिछड़ा वर्ग उभार के रूप में भी देखते हैं। सरकार और प्रभुओं ने यदि गांव के बारे में ठीक से सोचा होता तो तस्वीर कुछ दूसरी होती। दरअसल गांव को कभी हमने अपना माना ही नहीं। हम हमेशा शहर भागने की फिराक में रहे। आज भी गांव में सिर्फ वही रहता है जो मजबूर है। स्वेच्छा से गांव में रहने वाले बहुत कम हैं। इसके लिए एक हद तक प्रवृत्ति तो दूसरी ओर सुविधाओं का अभाव जिम्मेदार है। इन्हीं कारणों से गांव नरक का भोजपुरी अनुवाद बन गया।
शिक्षा और उससे जुड़ी चीजें (किताब आदि) तो एकदम नदारद हैं। रोजगार का अभाव भी अहम है। उन गांवों में तस्वीर निश्चित रूप से जुदा है जहां लोग ज्यादे शिक्षित हैं। मेरे गांव में शिक्षा का स्तर पुराने समय से ही ठीक है इसलिए गांव तमाम बुराइयों से दूर है। हां यह जरूर है कि यहां एक ही आदमी पूरे गांव का उत्पीड़न करता है तो इसके लिए व्यवस्था जिम्मेदार है जो न्याय नहीं देती। छुआछूत आदि तो अब समाप्त प्राय हैं। नशे की गिरफ्त, निठल्लापन तो आयातित शहरी विकार हैं। गांजा-भांग तो पहले से थे लेकिन बहुत कम लोग इसका नियमित सेवन करते थे। ऐसा करने वालों का तिरस्कार होता था, सामाजिक अंकुश होता था तो स्थिति नियन्त्रित और उत्तम थी। लोग रोजगार के लिए शहरों में गए तो मतवाला हाथी बनकर लौटे जो अंकुश स्वीकार नहीं करता। इस तरह नशे में वृद्धि हुई। शराब का चलन तो विशुद्ध शहरी है। सहज उपलब्धता ने स्थिति को डांवाडोल कर दिया। एक स्कूल खोलने में सरकार को नानी याद आ जाती है लेकिन हर चौराहे पर शराब की दुकान खोलकर राजस्व का दोहन करना उसे खूब सुहाता है। अब गांवों में भी कोई शादी बिना शराबखोरी के सम्पन्न नहीं होती। शराब नहीं पीयेंगे तो नाचेंगे कैसे। दरअसल हम स्वभाव से नकलची हैं। बाहर की चीजों को पट से लपक लेते हैं। शहर के लोग पश्चिम की चीजों को और गांव के लोग शहर की चीजों को। लेकिन कुल मिलाकर 'स्थिति तनावपूर्ण किन्तु नियन्त्रण में है।'
दूसरी ओर सघनता में कमी और समय की उपलब्धता गांव में है। जिसका एक फायदा जरूर है कि अब भी लोग एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। इसके अलावा यह भावना भी कहीं न कहीं रहती है कि अमुक मेरे भाई-पट्टीदार हैं इसलिए स्वाभाविक तौर पर अपनापन होता है। दूसरे जाति के लोग भी काका-काकी होते हैं। शहर में कोई किसी का नहीं होता। आरडब्ल्यूए और गांव के ताने-बाने में बहुत अन्तर है। मैंने आज तक बहुत विचार किया तो पाया कि शिक्षा और रोजगार का उत्तम प्रबन्ध हो जाए तो गांव शहर की अपेक्षा अत्यन्त बेहतर है।

21.12.08

व्हेन आई टाक त आईअ टाक

आज आपको एक सच्ची लेकिन सुनी हुई मनोरंजक घटना सुना रहा हूँ।
काशी हिन्दु विश्वविद्यालय के एक पूर्व छात्र नेता अंग्रेजी के प्रति बहुत प्रतिबद्ध हैं। मान लीजिए कि उनका नाम बिन्दु राय है। एक बार एक वरिष्ठ दलीय नेता ने उनसे परिचय पूछा तो उन्होंने अपना परिचय इस प्रकार दिया... आई इज बिन्दु राय...। सहसा उन्हें अपनी गलती का एहसास हुआ तो सुधार करते हुए उन्होंने पुन: दे मारा... आई आर बिन्दु राय। माहौल कितना खुशगवार हो गया होगा आप अन्दाजा लगा सकते हैं।
इसी प्रकार एक बार वह मंच पर बोलने खड़े हुए तो किसी ने बीच में टुपक दिया। राय साहब नाराज हो गए और अंग्रेजी में खूब डांटा... व्हेन आई टाक त आईअ टाक अ... व्हेन यू टाक त यूअ टाक, डोंट टाक बिट्विन-बिट्विन।
कहते हैं कि राय साहब ने अंग्रेजी सीखने में राजनीति से ज्यादा मेहनत की। कई प्रकार की अंग्रेजी पत्र-पत्रिकायें मंगाकर वह अध्ययन करते रहे। फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने के लिए उन्होंने रैपिडेक्स स्पीकिंग कोर्स का भी सहारा लिया। कुछ दिन तक स्पीकिंग कोर्स की क्लास भी ज्वाइन किए। लेकिन हाय री अंग्रेजी! लाख कोशिशों के बाद भी तुम राय साहब के लिए पराई ही रही, विदेशी ही रही। इसी प्रकार एक अन्य नेता जी ने ट्रेन में एक आदमी से ‘सुर्ती ऐण्ड इज…’ कहकर खैनी मांगा।

19.12.08

२००६ की सर्वश्रेष्ठ कविता

मित्रों! एक अफ्रीकन बच्चे द्वारा लिखित कविता को यूएन ने वर्ष 2006 की सबसे अच्छी कविता घोषित किया। मुझे यह कविता एक वरिष्ठ पत्रकार ने मेल किया है। मैं चाहता हूं कि आप लोग भी इसका रसास्वादन करें---
The best poem of 2006

This poem was nominated by UN as the best poem of 2006, Written by an
African Kid


When I born, I black
When I grow up, I black
When I go in Sun, I black
When I scared, I black
When I sick, I black
And when I die, I still black

And you white fellow
When you born, you pink
When you grow up, you white
When you go in sun, you red
When you cold, you blue
When you scared, you yellow
When you sick, you green
And when you die, you gray

And you calling me colored?