21.10.09

दुहाई माई-बाप... धर्मावतार... सरकार की

दुहाई माई-बाप... धर्मावतार... सरकार की। दुहाई डीह-काली-भगवती की। दुहाई टोनमत कालिका की। दुहाई चंवरिया माई की। दुहाई भैया और मैया की। दुहाई भारत और भारतीय संविधान की। मैं दलित मेरे बाप दलित, उनके बाप भी वही दलित और जाने कब से मेरा पूरा का पूरा कुनबा दलित। लोग बताते हैं कि हजारों साल से दलित। वैसे मैं कुछ नहीं जानता। इतने वक्त के अपमान, लात-जूते, बेगारी को केवल मैंने देखा भर है महसूसा तक नहीं। लेकिन जाने क्यों अब थोड़ा-थोड़ा महसूसने लगा हूँ तो थोड़ा-थोड़ा ही तख्तो-ताज बदलने लगे हैं। इसे बदल भी नहीं पाता लेकिन जाने कौन सी शुभ-अशुभ घड़ी थी जब मुझे निजाम सरकार की शान में सजदे के बजाय मुहर मारने का अधिकार दे दिया गया। यही कमबख्त मुहर याकि आज की ‘पीं-पीं’ तो अब वो औजार बन गई है जब बार-बार बताया जाता है कि तुम नीच हो... दलित हो... दरिद्र हो और न जाने क्या-क्या हो। शायद ये नहीं होता तो निजाम सरकार की ललचाई निगाहें मेरी बस्ती... मेरे वजूद से दूर ही रहतीं। कम-स-कम इश्तहार देकर मुझे जलील तो नहीं करतीं।आज मुझे फिर शिद्दत से याद आ रही है वो घड़ी जब कुछ दानीश्वर लोग बैठकों और गुफ्तगू के लम्बे दौर के बाद मेरे लिए मुहर वाले अधिकार को तय कर दिये। मैंने उनसे मांगा नहीं था। हां मेरे कुछ भाई-बन्धु लोग जरूर भगवान के मन्दिर-सन्दिर जाने के चक्कर में कुछ अड़-भिड़ टाइप गये थे। गनीमत कहूँ या क्या कहूँ कुछ समझ में नहीं आता। भैया लोग! इतना ही समझदार होता तो आजतक जलील न किया जाता। लेकिन इस नियति का भी क्या करूँ जो मुझे बार-बार ठगती है। कैसे-कैसे तो समझदारी दिखाता हूँ तो भी पत्थर के सनम खड़े होने लगते हैं। कमबख्त यहां कोई खुदा नहीं निकलता चाहे कितनी भी खुदाई करो।तो हुजुर-ए-आला उसी टैम तय कर दिये होते कि मैं बड़े संस्कारों वाला ऑकसफोरड या न जाने कहाँ-कहाँ दूर-देश पढ़ा-लिखा। न जाने किन-किन पंडित जी हेन-तेन का खून मेरी रगों में बहता हुआ, गुलाब-सुलाब के सुर्ख रंग से आफताब मेरा चेहरा, तमाम पीढ़ी की खुश्बू से महकता मेरा जिस्मो-बदन जब उनके घर जाकर भोजन-भजन करूंगा तो मेरी संगदिली से... मेरे साहचर्य से उनका पूरा का पूरा उद्धार हो जायेगा। ये वोट-फोट की क्या जरूरत है। अगर इसे भी न देते तो आज आपको इतना परीशां तो न होना पड़ता। बिस्लरी की बोतल थामे रथ-बग्घी से माई-बाप को मेरी गलीच बस्ती तक हिचकोले तो न खाना पड़ता। ये माना कि सब कुछ बस यूं... लेकिन सरकार को जो दिक्कत हुई उसका क्या। मेरे दलितपने का ढिंढोरा पीटा गया तो बला से। मैं हूँ ही इस लिए। अगर मेरा कुछ जन्मसिद्ध टाइप अधिकार है तो समझिए बस यही। दुहाई सरकार की... गलत कह रहा हूँ यह भी मेरा अधिकार नहीं है। बस है तो वही कि निस्पृह भाव से ...खाते जाना और प्रभु का गुण गाते जाना।
साठ-सत्तर साल से... आं...आं सरकार टैम ठीक-ठीक नहीं जानता। गुणा-गणित जानता ही नहीं न। तो जो है सो की मेरे सरकार... मेरी मजबूती के लिए दिन-रात एक किये हैं। अब क्या बताऊँ कि उनकी कई-कई नस्लें बीत गईं मेरी बेहतरी के लिए और एक शैतान मैं हूँ कि सुधरता ही नहीं। अब आप ही बताएं कि मुझे शरम के मारे धरती में धस नहीं जाना चाहिए? सरकार ने तो पूरी कोशिश की लेकिन कामियाब नहीं हो पाये तो वो क्या करें? अगरचे उनसे कोई कमी भी रह गई हो तो भला उन्हें क्यों शर्मिन्दा होना चाहिए? वो तो सरकार हैं। माफ रखियेगा हुजूर... यह 'बेदवा' बहुत दुष्ट किस्म का आदमी है। मैंने तो इससे बस ऐसे ही बतकुचन की लेकिन सुना है कि इसने जस का तस अपने पंडिताई वाली भाखा(भाषा) में उस बतकही को छाप दिया है। आइन्दा से उससे भी दूर ही रहूंगा। जौन आदमी एक ठो छोटी सी बात नहीं पचा सकता, भला ऊहो कौनो मर्द है।
डिस्क्लेमर DISCCLAIMER
* एक दलित का दर्द शायद कुछ ऐसा ही होता होगा। मैं ठीक-ठीक नहीं बता सकता। डॉ. श्यौराज सिंह बेचैन को पढ़ा तो उनके इस प्रश्न ने मुझे चक्कर में डाल दिया कि "बच्चे के जन्म के समय होने वाली पीड़ा को कोई मर्द कैसे बता सकता है।" बात ठीक भी लगती है। उसी तरह एक दलित के टटका और बासी दु:ख को थोड़ा सा महसूस ही कर सकता हूँ, पूरी तरह जान नहीं सकता। ताजा वाकये को महसूसने के बाद विचारों की जो घुमड़न हुई उपर्युक्त पंक्तियां वही हैं।

29.9.09

ब्लॉगवाणी: शंभु भये जगदीश

छोटी सी बात पर क्रोध उचित नहीं। कभी-कभी जो चीज हमारे लिए छोटी होती है वही चीज दूसरे के लिए बड़ी होती है। लेकिन जब सवाल एक बड़ी कम्युनिटी के हित का हो किसी भाषा(खासकर अपनी हिन्दी) और विचार-प्रवाह के हित का हो तो अपमान और लांछन के कड़वे घूंट को पी जाना ही श्रेयष्कर होता है। यही करके तो शंभु भये जगदीश
ब्लॉगवाणी फिर से शुरू हुई तो मुझे अपार हर्ष हो रहा है। हालांकि मैं नित-निरन्तर लिखता नहीं लेकिन यही वह माध्यम है जो मुझे पूरे हिन्दी ब्लॉग जगत से जोड़े हुए है। ब्लॉगवाणी खोला और इसके बन्द होने की सूचना पाया तो सन्न रह गया। सोचा कि अपील करूं लेकिन नहीं किया। मुझे पूरा विश्वास था कि जनता की अपार मांग को टीम ब्लॉगवाणी नकार नहीं पायेगी और यह पुन शुरू होगी ही। हुआ भी यही। यही सोचकर आज फिर इसे खोला और खुश हुआ। अन्त में ब्लॉगवाणी टीम को लाख-लाख साधुवाद।

27.8.09

यही "है" और "थे" का तो अंतर है शौरी जी


बीजेपी से अरुण शौरी भी विदा होने वाले हैं। बड़ा जेनुइन मुद्दा उठाए। एकदम से डेमोक्रेटिक। वसुन्धरा राजे सिन्धिया और भुवनचन्द खंडूरी वाले मुद्दे पर बोले। बोले कि वसुन्धरा को इतने में से इतना का समर्थन हासिल है और खंडूरी साहब को इतने में से इतना का समर्थन हासिल था फिर बहुमत वाले नेता को कैसे हटाया जा रहा है। यही ''है'' और ''थे'' का तो सब खेल है शौरी जी। इतनी सी बात समझ में न आई। कल तो जो खंडूरी के साथ थे आज नि:शंक के साथ हैं। (मेरा ख्याल है कि उनका तखल्लुस नि:शंक ही होगा बिना शंका के, वैसे हो सकता है निशंक का कोई अर्थ होता हो और वह यही लिखते हों) आज जो वसुन्धरा के साथ हैं कल जो नेता होगा उसके साथ होंगे। कोई गोल-गिरोह बना ले तो क्या करें? जिन्ना की भक्ति पर जसवन्त का क्या करें? भाजपा को तो छोड़िए आम भारतीय भी उन्हें माफ करने के मूड में नहीं है। कैसी नोटिस और कैसा स्पष्टीकरण? आप तो बहुत दूर तक की सोचते हैं। कहते हैं कि बदले में एक किताब लिखिए। सुना है कि जसवन्त ने पांच साल में अपनी किताब लिखी तो काउण्टर अटैक करने के लिए कितने समय में किताब लिखी जा सकेगी? आप तो भारी इण्टेलेक्चुअल हैं। बताइए आप कितने वर्ष में जवाबी पुस्तक लिख पायेंगे। तब जाकर जसवन्त को जवाब दिया जाए। तब जाकर उनके खिलाफ कार्रवाई की जाए। इतने समय में तो भाजपा की लुटिया डूब जायेगी।
आपको याद तो होगा न कि जसवन्त की बातें एकदम से विश्वास लायक नहीं होतीं। कैसे उन्होंने अपनी पूर्व पुस्तक में कह दिया था कि नरसिम्हाराव की सरकार में उनके कार्यालय में एक विदेशी एजेण्ट सक्रिय था। बहुत पूछताछ हुई तो एक फर्जी किस्म का दस्तावेज प्रस्तुत किए। फिर उस पर सवाल उठा तो कहे कि यह सब मेरी कल्पना पर आधारित है यानि कि सब कपोल-कल्पित है। भाजपा की बड़ी भद पिटी।
इसके बाद प्रश्न है कि बीजेपी आप का क्या करे? बहुत नाराज थो पार्टी फोरम में बातचीत करते। वहां सवाल उठाते। अपने घर के झगड़े के बारे में देश को तो कोई एक बार भी नहीं बताता। माना कि आपके घर से देश को मतलब नहीं है लेकिन भाजपा से है। फिर भी वहीं चीजों को दुरुस्त करके बताते तो अच्छा रहता। बाहर चिल्लाएंगे तो क्या मिलेगा? बेइज्जती ही होगी। कोई लाभ नहीं मिलने वाला है।

14.8.09

मादरे हिन््द के चेहरे पे अभी उदासी है वही

आजादी के दिन बस यही...
कौन आजाद हुआ
किसके माथे से सियाही छूटी
मेरे दिल में अभी दर््द है महकूमी का
मादरे हिन््द के चेहरे पे अभी उदासी है वही

9.8.09

पत्रकार भाई बारिश जानते ही नहीं!

कल देर रात टेलीविजन पर एक खबर देखी। बड़ी महत्वपूर्ण खबर चल रही थी। सूखे पर। शुरुआत में ही बताया गया कि बुआई का मौसम बीता जा रहा और बारिश नदारद है। मन खिन्न हो गया। भयंकर अकाल पड़ गया है तो मनोवैज्ञानिक और सामाजिक रूप से मन का खिन्न होना लाजिमी है। लेकिन मन खिन्न एक और वजह से भी हुआ। रपट में शुरू में ही बता दिया गया कि बोअनी का मौसम बीता जा रहा है। अब आप लोग ही बताएं कि मौसम बचा ही कहां है जो बीता जा रहा है?10 अगस्त तक कौन सी चीज की बुआई बाकी है। अब कहां समय बचा है बुआई-कटाई का। धान, मक्का, बाजरा आदि इस काल की प्रधान फसलें हैं। 10 अगस्त या उसके बाद धान की रोपाई होगी तो वह पकेगा कब? तो बड़ी कोफ्त हुई। बता रहे थे कि बुआई का मौसम बीता जा रहा है।
अब आगे बढ़ते हैं। हरियाणा में बता रहे थे कि लगभग 50 फीसद (5-7 फीसद इधर-उधर ठीक से याद नहीं)बारिश कम हुई। इसका मतलब जितनी बरसात हुई उतनी ही और हुई होती तो मामला चकाचक था। दिल्ली में बता रहे थे कि 61 फीसद कम हुई। माने कि जितनी हुई अगर उतनी और हुई होती तो लगभग मामला ठीक रहता। अब आप लोग बताएं कि दिल्ली में बारिश ही कहां हुई। ऐतराज मुझको वहीं से है, समझ से है, जब हल्की सी बरसात पर हाय-तौबा मचा देते हैं कि 'दिल्ली में झमाझम बारिश'। मैं हैरान हो जाता हूं। इसका मतलब झमाझम बारिश इन्होंने कभी देखी ही नहीं। अधिकांश हिन्दी पत्रकार कहीं न कहीं गांव-देहात से ही आये हैं। फिर भी मध्य जुलाई में हुई हल्की सी बरसात (जबकि उसके पहले तक एक बूंद भी मानसूनी बरसात न हुई हो) पर, आधे घण्टे की बरसात पर नाचने लगते हैं। इनका मन-मयूर नृत्य करने लगता है। नृत्य करना तो ठीक लेकिन 'जैज' ठीक नहीं। शेष देश की जनता को बताते हैं कि दिल्ली सराबोर हो गई तृप्त हो गई। यह नहीं बताते कि 'दिल्ली में गिरी दो बूंद जिन्दगी की'। हालांकि भारी अवर्षण के बाद यह दो बूंद जिन्दगी की भी नहीं कही जा सकती। क्योंकि गिरते ही यह छन्न से जल जाती है गर्म तवे पर पड़ी पानी की बूंद की तरह। मान लीजिए आपको दस दिन पानी न दिया जाए और ग्यारहवें दिन एक कप पानी पिला दिया जाए। फिर सात दिन बाद एक कप और पानी पिला दिया जाए। कभी-कभी बीच में एक चम्मच पानी पिला दिया जाए। पिलाया क्या खाक जायेगा। तब तक तो आपका राम नाम सत्य हो चुका होगा।
यहीं और जानकारी दिए कि यूपी के 69 जिलों में से सरकार ने 57 को सूखाग्रस्त घोषित कर दिया है। तमाम और उत्तर भारतीय राज्यों के बारे में भी सूचना दिए। यूपी वाली जानकारी को लेकर मुझे फिर झल्लाहट हुई। लगता है कि यहां बारिश जगह देख-देख कर हो रही है। गोरखपुर में हो रही है लेकिन सन्तकबीर नगर में नहीं, देवरिया में नहीं(इसे आप मेरठ, बुलन्दशहर और गौतमबुद्धनगर के सन्दर्भ में भी समझ सकते हैं)। जबकि जहां सीमा सटती है वहां जिलों के बीच की दूरी तो फिट और इन्च में भी नहीं होती। खेत का एक हिस्सा एक जिले में होता है तो दूसरा हिस्सा दूसरे जिले में। कहीं बारिश शरारत तो नहीं कर रही। खेत के एक हिस्से में बरस रही हो और दूसरे हिस्से में नहीं। या कहीं शरारत सरकार की है। शरारत नहीं जनता के साथ बदला। जनता को सजा। वह भी चुनी हुई सरकार द्वारा एक जनतान्त्रिक राज्य में। लखनऊ बैठे संवाददाता से मात्र एक लाइन पूछ लिए होते तो वह तुरन्त सारा खेल बता देता। लेकिन इतना टाइम कहां और इतनी गम्भीरता कहां। धरती से जुड़ाव होता अनुभव होता तो यह खेल अपने आप समझ में आ जाता कि 90 प्रतिशत भाग में भयंकर सूखा है और 10 प्रतिशत में बारिश। ऐसा कैसे? कहीं इन्द्र देवता डंडा लेकर तो नहीं खड़े हैं कि यहां बारिश करो... न...न... वहां नहीं। जबकि पड़ोसी राज्य भी सूखे-सूखे हैं। नहीं तो मान लेते की सरहदी जिलों में हो सकता है कि बारिश हुई हो। ऐसा कुछ सोच लेते।
अब और देखिए... जुलाई के अंतिम हफ्ते में दिल्ली में एक दिन दो-तीन घण्टे बारिश हुई। इतना कोहराम मचाए कि मुझे लगा दिल्ली बह जायेगीउस समय मैं गोरखपुर में बैठा था। ऐसा हाइप क्रिएट किए कि लगा जो लोग रास्ते में हैं अब वे कभी अपने घर न जा पायेंगे। जमुना-लाभ ले लेंगे। जबकि सारी दिक्कत हमारी बसाहट और बनावट की वजह से उपजी थी। बारिश की वजह से नहीं। बारिश तो होनी ही चाहिए। अब दीवार कमजोर और उसकी चुनाई में खामी होगी तो गिर ही जायेगी। इसमें हल्की सी बारिश का क्या कुसूर। चलिए बारिश को प्रत्यक्षरूप से कुसूरवार नहीं ठहरा रहे थे न सही लेकिन बता यही रहे थे कि इतनी बारिश हुई कि दीवार गिर गई और लोग मर गए। जाम लग गया तो बारिश क्या करे। उसके बहने का रास्ता क्यों बन्द किए, इतनी गाड़ियां क्यों खरीद लिए? बारिश की दो बूंद पड़ते ही, स्मैकिए की तरह चिहुंकते क्यों हों? लगता है कि मिट्टी के ढेले हैं गल जायेंगे। मैंने शहरों में अधिकांश लोगों को देखा है कि दो बूंद पड़ते ही छाये की तरफ बेतहाशा भागते हैं। अरे आराम से जाइए दो-चार मिनट में छत या छाया मिल ही जायेगी।
(मूल लेख रात तीन-साढ़े तीन बजे दिमाग में लिखा गया अब स्मृति के आधार पर उसे प्रस्तुत किया जा रहा है। जाहिर है वह रवानी और धार तो नहीं आ पायेगी। यही तो दिक्कत है।)

30.5.09

भरी जवानी में ऐसा आराम!

मई की धड़कन बन्द होने वाली है। सूरज बेहद गुस्से में है। लेकिन मुझ पर कोई असर नहीं है। मेरा एसी चिन्तन चालू है। तमाम दुखों के साथ कुछ सुख भी मिल ही जाता है। मेरी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि मैं एसी चिन्तन कर सकूं। लेकिन इस कमजोरी के बावजूद एसी चिन्तन कर पा रहा हूं। कार्यस्थल पर मुझे बेहद आराम की स्थिति में रखा गया है। कहते हैं कि भरी जवानी में ऐसा आराम उचित नहीं है। लेकिन मुझे नहीं लगता कि इस करियर को मैं चालू रख पाऊंगा। इसलिए सोचता हूं कि ज्यादा चिन्ता की बात नहीं है। अर्थशास्त्र के ‘आकुपेशनल मोबिलिटी’ की ज्यादा सम्भावना नजर आती है।

सबकुछ जानते हुए भी न जाने क्यों टाइम ‘पास’ कर रहा हूं। शायद सामाजिक दबाव के चलते। बाबू दिल्ली में नौकरी करते हैं, इसका बड़ा महत्व है। माताजी भी सुख महसूस करती हैं। वियोग से दुख तो अवश्य उपजता है लेकिन बाबू ठीक-ठाक नौकरी करते हैं, आवारागर्दी नहीं करते (उनकी नजर में) इस वजह से प्रसन्न भी होती हैं। इस वजह से मैंने भी कहा कि “जौ तुम सुख मानहु मन माहीं।”

पढ़ाई-लिखाई और आवारागर्दी के दौरान नौकरी के बारे में मैंने कभी सोचा भी न था। दिल्ली-पंजाब जाकर नौकरी तो सपने में भी नहीं लेकिन दोनों जगहों पर रहना पड़ा और नौकरी करनी पड़ी। शायद प्रारब्ध के चलते। इससे एक फायदा अवश्य हुआ कि कई चीजों की जानकारी हुई, उन्हें करीब से देखने-समझने का अवसर मिला। एक अच्छी बात और हुई मीडिया व अन्य बौद्धिक हलकों में वामपन्थियों या मिलती-जुलती विचारधारा वाले लोगों के षड्यन्त्रों और दुराग्रहों को जानने-समझने का अवसर मिला। इससे मेरी अपनी निष्ठा और प्रबल हुई। पहले छोटी-छोटी बातों मसलन तथाकथित आत्मसम्मान, जातीय आग्रह हेन-तेन को लेकर विचारधारा से भटकाव हो जाया करता था। यह भटकाव विद्रोह के स्तर तक भी पहुंच जाता था। लेकिन इस खित्ते में आकर ज्ञान हुआ कि बड़े प्रयोजन के लिए छोटी-छोटी बातों को दरकिनार कर देना ही श्रेयष्कर होता है।

नौकरीपेशा प्रवृत्ति का मुझमें अभाव है। वैसे अभाव तो मुझमें कई सद्गुणों का है। आखर मन में आकार लेते हैं और वहीं खो भी जाते हैं। उन्हें कागज पर उतारने की जहमत नहीं उठाता। एक अवगुण तो जीवन पर ही भारी पड़ रहा है लेकिन उसमें डूबना-उतराना जारी है। उम्मीद है कि जल्द निजात मिल जायेगी।

बहरहाल, एसी चिन्तन के बारे में सुनते जाइए। सर्वहारा, बुर्जुआ, क्रान्ति, चिनगारी जैसे शब्द लगातार दिमाग में कौंधते रहते हैं। हालांकि मैं वामपन्थी नहीं हूं। अन्तिम व्यक्ति और एकात्म मानववाद, ट्रस्टीशिप आदि पर भी मन्थन चलता रहता है। हालांकि, इस मन्थन से कोई अमृत निकलने वाला नहीं है। मन्थन और चिन्तन की इसी प्रक्रिया में आज फिर ‘वो’ मिल गए। उसी राह पर - उसी मोड़ पर। मैंने फिर कहा ‘तूने शर्त-ए-वफा भुलाई है।’ वो फिर कुछ नहीं बोले चुपचाप चल दिए। उनके दीदार क्या हुए एकबारगी मन फिर सरसराने लगा है। लेकिन अब तो सावन-भादों तक इन्तजार करना पड़ेगा। जब झूम के बरसेगा सावन तभी कुछ हो पायेगा, ऐसा ज्योतिषियों ने बताया है। बहरहाल उनकी राय है कि तब तक सरसराते रहिए। चुप मत बैठिए। सिर्फ टिप्प-टिप्प मत करिए, कुछ करिए-करिए।

7.3.09

सररर...र...र...र…

अभी होली आने में करीब-करीब एक सप्ताह बाकी है लेकिन मन है कि सररर...र...र...र......र कर रहा है। देखिए न! मानता ही नहीं है, कह रहा है जोगीरा सररर...र...र...र......र…। कमबख्त रुकने को कतई तैयार नहीं, पेले हुए है सररर...र...र...र…। सरसों के फूल, फल में बदल गए हैं। अभी कल ही घर बात हुई थी तो पता चला कि कट गई सरसों। मैं वसंत का इंतजार करता रह गया और न जाने कब सरसों कट गई। ठीक से फूल भी नहीं देख पाया। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी भी (‘भी’ के लिए आचार्य प्रवर माफ करियेगा) ऐसे ही इंतजार करते रहे। अपने साहित्याश्रम के तमाम पेड़ों में अगोरते रहे वसंत। आखिर एक पुष्प-बेल फूल कर कुप्पा हो गई और खड़-खड़ाकर आ गया वसंत। खैर, ऐन मौके पर मेरे पास भी आ गया है वसंत। आ ही नहीं गया है, धनुही से तीर भी चला रहा है। सदियों से उसकी आदत जो रही है। खेतों में हरियाली अपने चरम पर है। गेहूं जवान होकर अब अंगड़ाई ले रहा है। रोज धूप ज्यों-ज्यों जवान होती है त्यों-त्यों उसकी जवानी की गंध दिशाओं में फैल जाती है। यह सब कुछ अनुभव आधृत ही है, लेकिन है सौ फीसद सही। मैं तो यहां हूं भारत के दिल दिल्ली में। यहां वसंत का मतलब सड़क पर चमचमाती, शोर मचाती गाड़ियों से है। निवासस्थान पर भी सब कुछ अतिसामान्य है। कार्यस्थल पर भी कोई वसंत नहीं आया, सबकुछ यथावत है। इसी बीच आज ‘वो’ मिल गए। मैंने कहा तूने शर्ते-ए-वफा भुलाई है। वो कुछ बोले नहीं चुपचाप चल दिये। शोर-गुल के इस माहौल में ये पंक्तियां ऊपर वाले तीर-धनुष की वजह से उपजीं। अब तो होली तक मन सरसराता रहेगा। होली के दिन एकदम से
ठेठ हो जायेगा। होली है ही इसीलिए की मन ठेठ हो जाए, तन ठेठ हो जाए, सब कुछ ओरिजिनल अवस्था में पहुंच जाए। लेकिन रह-रहकर दिक्कत हो रही है कि ‘‘अबकी फिर नाहीं जा पाइब होली में घरे।’’


Mitron pichhle varsh kisi anya blog par meri yeh rachna prakashit hui thi. Ise is varsh bhi daal raha hoon. waise is baar to main apne ghar par hoon.