24.12.08

गांव-शहर पर लम््बी टिप््पणी

मैंने यह टिप््पणी 'मोहल््ला' में लिखी। 'गांव रहने लायक हैं मगर किसके लिए...' पर अपनी राय दी। अब आप बताएं कि मुफ््त में इतनी लम््बी राय देना क््या जायज है।
शहर में हर गली में ठगी और लूट है। दूकानदार और लोग बेतरह लूटते हैं, जानते हैं कि फिर भेंट नहीं होनी है। आदमी सम्बन्ध पैसे के आधार पर तय करते हैं, आदमियत की तो कोई जगह ही नहीं। अगर किसी के मकान में एक दिन ज्यादा रुक जाएं तो वह आपसे 15 दिन का किराया वसूलना चाहता है। अगर कोई चूड़ा-दही खाना चाहता है तो इसमें आपको क्यों आपत्ति है? आपके पास उपलब्ध है तो खिलाइए अन्यथा न खिलाइए। अगर आपको दिक्कत ही है तो चूड़ा-दही और कपड़ा निकालकर खाने वाले लोग अब सिर्फ गिनती के बचे हैं और कई गांवों में तो हैं ही नहीं। इनसे चिन्तित होने की जरूरत नहीं है। दूसरी ओर यह भी सही है कि गंवईं राजनीति खतरनाक स्तर तक पहुंच गई है। इसके लिए जातिवाद ज्यादा और पंचायतों को मिले अधिकार थोड़े कम जिम्मेदार हैं। मण्डल कमीशन लागू होने के बाद इसमें भयानक वृद्धि हुई। गांव कत्लगाह बनते जा रहे हैं। हालांकि कई लोग इस परिवर्तन को पिछड़ा वर्ग उभार के रूप में भी देखते हैं। सरकार और प्रभुओं ने यदि गांव के बारे में ठीक से सोचा होता तो तस्वीर कुछ दूसरी होती। दरअसल गांव को कभी हमने अपना माना ही नहीं। हम हमेशा शहर भागने की फिराक में रहे। आज भी गांव में सिर्फ वही रहता है जो मजबूर है। स्वेच्छा से गांव में रहने वाले बहुत कम हैं। इसके लिए एक हद तक प्रवृत्ति तो दूसरी ओर सुविधाओं का अभाव जिम्मेदार है। इन्हीं कारणों से गांव नरक का भोजपुरी अनुवाद बन गया।
शिक्षा और उससे जुड़ी चीजें (किताब आदि) तो एकदम नदारद हैं। रोजगार का अभाव भी अहम है। उन गांवों में तस्वीर निश्चित रूप से जुदा है जहां लोग ज्यादे शिक्षित हैं। मेरे गांव में शिक्षा का स्तर पुराने समय से ही ठीक है इसलिए गांव तमाम बुराइयों से दूर है। हां यह जरूर है कि यहां एक ही आदमी पूरे गांव का उत्पीड़न करता है तो इसके लिए व्यवस्था जिम्मेदार है जो न्याय नहीं देती। छुआछूत आदि तो अब समाप्त प्राय हैं। नशे की गिरफ्त, निठल्लापन तो आयातित शहरी विकार हैं। गांजा-भांग तो पहले से थे लेकिन बहुत कम लोग इसका नियमित सेवन करते थे। ऐसा करने वालों का तिरस्कार होता था, सामाजिक अंकुश होता था तो स्थिति नियन्त्रित और उत्तम थी। लोग रोजगार के लिए शहरों में गए तो मतवाला हाथी बनकर लौटे जो अंकुश स्वीकार नहीं करता। इस तरह नशे में वृद्धि हुई। शराब का चलन तो विशुद्ध शहरी है। सहज उपलब्धता ने स्थिति को डांवाडोल कर दिया। एक स्कूल खोलने में सरकार को नानी याद आ जाती है लेकिन हर चौराहे पर शराब की दुकान खोलकर राजस्व का दोहन करना उसे खूब सुहाता है। अब गांवों में भी कोई शादी बिना शराबखोरी के सम्पन्न नहीं होती। शराब नहीं पीयेंगे तो नाचेंगे कैसे। दरअसल हम स्वभाव से नकलची हैं। बाहर की चीजों को पट से लपक लेते हैं। शहर के लोग पश्चिम की चीजों को और गांव के लोग शहर की चीजों को। लेकिन कुल मिलाकर 'स्थिति तनावपूर्ण किन्तु नियन्त्रण में है।'
दूसरी ओर सघनता में कमी और समय की उपलब्धता गांव में है। जिसका एक फायदा जरूर है कि अब भी लोग एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। इसके अलावा यह भावना भी कहीं न कहीं रहती है कि अमुक मेरे भाई-पट्टीदार हैं इसलिए स्वाभाविक तौर पर अपनापन होता है। दूसरे जाति के लोग भी काका-काकी होते हैं। शहर में कोई किसी का नहीं होता। आरडब्ल्यूए और गांव के ताने-बाने में बहुत अन्तर है। मैंने आज तक बहुत विचार किया तो पाया कि शिक्षा और रोजगार का उत्तम प्रबन्ध हो जाए तो गांव शहर की अपेक्षा अत्यन्त बेहतर है।

2 comments:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

कौन करे गांव में अच्छी शिक्षा का प्रबन्ध। सरकार उदासीन, शिक्षक कामचोर, शिक्षा विभाग स्थानान्तरण के मामलों में पैसे बनाने में व्यस्थ, सेलेबस पर किसी का बस नहीं....तो अच्छी शिक्षा कहां से लाएं। सेवी संस्थाएं भी अपनी सेवा में ही व्यस्त....

डा० अमर कुमार said...


कृपया वर्ड-वेरीफ़िकेशन हटा लें..
बार बार कीबोर्ड ले-आउट बदलने से आपकी टिप्पणियाँ प्रभावित होती हैं !