7.3.09

सररर...र...र...र…

अभी होली आने में करीब-करीब एक सप्ताह बाकी है लेकिन मन है कि सररर...र...र...र......र कर रहा है। देखिए न! मानता ही नहीं है, कह रहा है जोगीरा सररर...र...र...र......र…। कमबख्त रुकने को कतई तैयार नहीं, पेले हुए है सररर...र...र...र…। सरसों के फूल, फल में बदल गए हैं। अभी कल ही घर बात हुई थी तो पता चला कि कट गई सरसों। मैं वसंत का इंतजार करता रह गया और न जाने कब सरसों कट गई। ठीक से फूल भी नहीं देख पाया। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी भी (‘भी’ के लिए आचार्य प्रवर माफ करियेगा) ऐसे ही इंतजार करते रहे। अपने साहित्याश्रम के तमाम पेड़ों में अगोरते रहे वसंत। आखिर एक पुष्प-बेल फूल कर कुप्पा हो गई और खड़-खड़ाकर आ गया वसंत। खैर, ऐन मौके पर मेरे पास भी आ गया है वसंत। आ ही नहीं गया है, धनुही से तीर भी चला रहा है। सदियों से उसकी आदत जो रही है। खेतों में हरियाली अपने चरम पर है। गेहूं जवान होकर अब अंगड़ाई ले रहा है। रोज धूप ज्यों-ज्यों जवान होती है त्यों-त्यों उसकी जवानी की गंध दिशाओं में फैल जाती है। यह सब कुछ अनुभव आधृत ही है, लेकिन है सौ फीसद सही। मैं तो यहां हूं भारत के दिल दिल्ली में। यहां वसंत का मतलब सड़क पर चमचमाती, शोर मचाती गाड़ियों से है। निवासस्थान पर भी सब कुछ अतिसामान्य है। कार्यस्थल पर भी कोई वसंत नहीं आया, सबकुछ यथावत है। इसी बीच आज ‘वो’ मिल गए। मैंने कहा तूने शर्ते-ए-वफा भुलाई है। वो कुछ बोले नहीं चुपचाप चल दिये। शोर-गुल के इस माहौल में ये पंक्तियां ऊपर वाले तीर-धनुष की वजह से उपजीं। अब तो होली तक मन सरसराता रहेगा। होली के दिन एकदम से
ठेठ हो जायेगा। होली है ही इसीलिए की मन ठेठ हो जाए, तन ठेठ हो जाए, सब कुछ ओरिजिनल अवस्था में पहुंच जाए। लेकिन रह-रहकर दिक्कत हो रही है कि ‘‘अबकी फिर नाहीं जा पाइब होली में घरे।’’


Mitron pichhle varsh kisi anya blog par meri yeh rachna prakashit hui thi. Ise is varsh bhi daal raha hoon. waise is baar to main apne ghar par hoon.