मई की धड़कन बन्द होने वाली है। सूरज बेहद गुस्से में है। लेकिन मुझ पर कोई असर नहीं है। मेरा एसी चिन्तन चालू है। तमाम दुखों के साथ कुछ सुख भी मिल ही जाता है। मेरी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि मैं एसी चिन्तन कर सकूं। लेकिन इस कमजोरी के बावजूद एसी चिन्तन कर पा रहा हूं। कार्यस्थल पर मुझे बेहद आराम की स्थिति में रखा गया है। कहते हैं कि भरी जवानी में ऐसा आराम उचित नहीं है। लेकिन मुझे नहीं लगता कि इस करियर को मैं चालू रख पाऊंगा। इसलिए सोचता हूं कि ज्यादा चिन्ता की बात नहीं है। अर्थशास्त्र के ‘आकुपेशनल मोबिलिटी’ की ज्यादा सम्भावना नजर आती है।
सबकुछ जानते हुए भी न जाने क्यों टाइम ‘पास’ कर रहा हूं। शायद सामाजिक दबाव के चलते। बाबू दिल्ली में नौकरी करते हैं, इसका बड़ा महत्व है। माताजी भी सुख महसूस करती हैं। वियोग से दुख तो अवश्य उपजता है लेकिन बाबू ठीक-ठाक नौकरी करते हैं, आवारागर्दी नहीं करते (उनकी नजर में) इस वजह से प्रसन्न भी होती हैं। इस वजह से मैंने भी कहा कि “जौ तुम सुख मानहु मन माहीं।”
पढ़ाई-लिखाई और आवारागर्दी के दौरान नौकरी के बारे में मैंने कभी सोचा भी न था। दिल्ली-पंजाब जाकर नौकरी तो सपने में भी नहीं लेकिन दोनों जगहों पर रहना पड़ा और नौकरी करनी पड़ी। शायद प्रारब्ध के चलते। इससे एक फायदा अवश्य हुआ कि कई चीजों की जानकारी हुई, उन्हें करीब से देखने-समझने का अवसर मिला। एक अच्छी बात और हुई मीडिया व अन्य बौद्धिक हलकों में वामपन्थियों या मिलती-जुलती विचारधारा वाले लोगों के षड्यन्त्रों और दुराग्रहों को जानने-समझने का अवसर मिला। इससे मेरी अपनी निष्ठा और प्रबल हुई। पहले छोटी-छोटी बातों मसलन तथाकथित आत्मसम्मान, जातीय आग्रह हेन-तेन को लेकर विचारधारा से भटकाव हो जाया करता था। यह भटकाव विद्रोह के स्तर तक भी पहुंच जाता था। लेकिन इस खित्ते में आकर ज्ञान हुआ कि बड़े प्रयोजन के लिए छोटी-छोटी बातों को दरकिनार कर देना ही श्रेयष्कर होता है।
नौकरीपेशा प्रवृत्ति का मुझमें अभाव है। वैसे अभाव तो मुझमें कई सद्गुणों का है। आखर मन में आकार लेते हैं और वहीं खो भी जाते हैं। उन्हें कागज पर उतारने की जहमत नहीं उठाता। एक अवगुण तो जीवन पर ही भारी पड़ रहा है लेकिन उसमें डूबना-उतराना जारी है। उम्मीद है कि जल्द निजात मिल जायेगी।
बहरहाल, एसी चिन्तन के बारे में सुनते जाइए। सर्वहारा, बुर्जुआ, क्रान्ति, चिनगारी जैसे शब्द लगातार दिमाग में कौंधते रहते हैं। हालांकि मैं वामपन्थी नहीं हूं। अन्तिम व्यक्ति और एकात्म मानववाद, ट्रस्टीशिप आदि पर भी मन्थन चलता रहता है। हालांकि, इस मन्थन से कोई अमृत निकलने वाला नहीं है। मन्थन और चिन्तन की इसी प्रक्रिया में आज फिर ‘वो’ मिल गए। उसी राह पर - उसी मोड़ पर। मैंने फिर कहा ‘तूने शर्त-ए-वफा भुलाई है।’ वो फिर कुछ नहीं बोले चुपचाप चल दिए। उनके दीदार क्या हुए एकबारगी मन फिर सरसराने लगा है। लेकिन अब तो सावन-भादों तक इन्तजार करना पड़ेगा। जब झूम के बरसेगा सावन तभी कुछ हो पायेगा, ऐसा ज्योतिषियों ने बताया है। बहरहाल उनकी राय है कि तब तक सरसराते रहिए। चुप मत बैठिए। सिर्फ टिप्प-टिप्प मत करिए, कुछ करिए-करिए।
30.5.09
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7 comments:
अंतहीन चिंतन की अभिव्यक कहानी…।
अच्छा लगा।
wah jee andaaje bayaan kamaal hai....chintan bilkul chintamani jaisee....
सार्थक आलेख, बधाई.
बात कहने के तरीके में दम है, लेकिन कुछ ज्यादा ऊबड़खाबड़ हो गया है। एसी से अनासक्त ही रहें तो ठीक, ताकि भीतर का ताप बना रहे।
"दिल्ली-पंजाब जाकर नौकरी तो सपने में भी नहीं लेकिन दोनों जगहों पर रहना पड़ा और नौकरी करनी पड़ी। शायद प्रारब्ध के चलते।"
jabardast
आपने कहा कुछ करिए, ये लीजिए मैंने आपकी पोस्ट पर टिप्पणी कर दी।
अब ऐसे ही लिखते रहिए।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
majaa liya ki taareef ki kuchh samajh nahin aaya ....
vaise aapka dhanyavaad ada karan chahenge..... :) :)
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