दुहाई माई-बाप... धर्मावतार... सरकार की। दुहाई डीह-काली-भगवती की। दुहाई टोनमत कालिका की। दुहाई चंवरिया माई की। दुहाई भैया और मैया की। दुहाई भारत और भारतीय संविधान की। मैं दलित मेरे बाप दलित, उनके बाप भी वही दलित और जाने कब से मेरा पूरा का पूरा कुनबा दलित। लोग बताते हैं कि हजारों साल से दलित। वैसे मैं कुछ नहीं जानता। इतने वक्त के अपमान, लात-जूते, बेगारी को केवल मैंने देखा भर है महसूसा तक नहीं। लेकिन जाने क्यों अब थोड़ा-थोड़ा महसूसने लगा हूँ तो थोड़ा-थोड़ा ही तख्तो-ताज बदलने लगे हैं। इसे बदल भी नहीं पाता लेकिन जाने कौन सी शुभ-अशुभ घड़ी थी जब मुझे निजाम सरकार की शान में सजदे के बजाय मुहर मारने का अधिकार दे दिया गया। यही कमबख्त मुहर याकि आज की ‘पीं-पीं’ तो अब वो औजार बन गई है जब बार-बार बताया जाता है कि तुम नीच हो... दलित हो... दरिद्र हो और न जाने क्या-क्या हो। शायद ये नहीं होता तो निजाम सरकार की ललचाई निगाहें मेरी बस्ती... मेरे वजूद से दूर ही रहतीं। कम-स-कम इश्तहार देकर मुझे जलील तो नहीं करतीं।आज मुझे फिर शिद्दत से याद आ रही है वो घड़ी जब कुछ दानीश्वर लोग बैठकों और गुफ्तगू के लम्बे दौर के बाद मेरे लिए मुहर वाले अधिकार को तय कर दिये। मैंने उनसे मांगा नहीं था। हां मेरे कुछ भाई-बन्धु लोग जरूर भगवान के मन्दिर-सन्दिर जाने के चक्कर में कुछ अड़-भिड़ टाइप गये थे। गनीमत कहूँ या क्या कहूँ कुछ समझ में नहीं आता। भैया लोग! इतना ही समझदार होता तो आजतक जलील न किया जाता। लेकिन इस नियति का भी क्या करूँ जो मुझे बार-बार ठगती है। कैसे-कैसे तो समझदारी दिखाता हूँ तो भी पत्थर के सनम खड़े होने लगते हैं। कमबख्त यहां कोई खुदा नहीं निकलता चाहे कितनी भी खुदाई करो।तो हुजुर-ए-आला उसी टैम तय कर दिये होते कि मैं बड़े संस्कारों वाला ऑकसफोरड या न जाने कहाँ-कहाँ दूर-देश पढ़ा-लिखा। न जाने किन-किन पंडित जी हेन-तेन का खून मेरी रगों में बहता हुआ, गुलाब-सुलाब के सुर्ख रंग से आफताब मेरा चेहरा, तमाम पीढ़ी की खुश्बू से महकता मेरा जिस्मो-बदन जब उनके घर जाकर भोजन-भजन करूंगा तो मेरी संगदिली से... मेरे साहचर्य से उनका पूरा का पूरा उद्धार हो जायेगा। ये वोट-फोट की क्या जरूरत है। अगर इसे भी न देते तो आज आपको इतना परीशां तो न होना पड़ता। बिस्लरी की बोतल थामे रथ-बग्घी से माई-बाप को मेरी गलीच बस्ती तक हिचकोले तो न खाना पड़ता। ये माना कि सब कुछ बस यूं... लेकिन सरकार को जो दिक्कत हुई उसका क्या। मेरे दलितपने का ढिंढोरा पीटा गया तो बला से। मैं हूँ ही इस लिए। अगर मेरा कुछ जन्मसिद्ध टाइप अधिकार है तो समझिए बस यही। दुहाई सरकार की... गलत कह रहा हूँ यह भी मेरा अधिकार नहीं है। बस है तो वही कि निस्पृह भाव से ...खाते जाना और प्रभु का गुण गाते जाना।
साठ-सत्तर साल से... आं...आं सरकार टैम ठीक-ठीक नहीं जानता। गुणा-गणित जानता ही नहीं न। तो जो है सो की मेरे सरकार... मेरी मजबूती के लिए दिन-रात एक किये हैं। अब क्या बताऊँ कि उनकी कई-कई नस्लें बीत गईं मेरी बेहतरी के लिए और एक शैतान मैं हूँ कि सुधरता ही नहीं। अब आप ही बताएं कि मुझे शरम के मारे धरती में धस नहीं जाना चाहिए? सरकार ने तो पूरी कोशिश की लेकिन कामियाब नहीं हो पाये तो वो क्या करें? अगरचे उनसे कोई कमी भी रह गई हो तो भला उन्हें क्यों शर्मिन्दा होना चाहिए? वो तो सरकार हैं। माफ रखियेगा हुजूर... यह 'बेदवा' बहुत दुष्ट किस्म का आदमी है। मैंने तो इससे बस ऐसे ही बतकुचन की लेकिन सुना है कि इसने जस का तस अपने पंडिताई वाली भाखा(भाषा) में उस बतकही को छाप दिया है। आइन्दा से उससे भी दूर ही रहूंगा। जौन आदमी एक ठो छोटी सी बात नहीं पचा सकता, भला ऊहो कौनो मर्द है।
डिस्क्लेमर DISCCLAIMER
* एक दलित का दर्द शायद कुछ ऐसा ही होता होगा। मैं ठीक-ठीक नहीं बता सकता। डॉ. श्यौराज सिंह बेचैन को पढ़ा तो उनके इस प्रश्न ने मुझे चक्कर में डाल दिया कि "बच्चे के जन्म के समय होने वाली पीड़ा को कोई मर्द कैसे बता सकता है।" बात ठीक भी लगती है। उसी तरह एक दलित के टटका और बासी दु:ख को थोड़ा सा महसूस ही कर सकता हूँ, पूरी तरह जान नहीं सकता। ताजा वाकये को महसूसने के बाद विचारों की जो घुमड़न हुई उपर्युक्त पंक्तियां वही हैं।
21.10.09
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1 comment:
वाह वेद बाबा बहुत बढ़िया लगा...
इस समय आप कहां पर है..
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